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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६७ विजयदेवस्य कामदेवप्रतिमापूजनम् ३४१ कविच्छुरितानि-अन्तः कर्माणि-अञ्चलयोनिलक्षणानि यस्य तत्तथा, 'आकासफलिहसरिसप्पभं' आकाशस्फटिकसदृशप्रमाभिर्विरोचमानं-आकाशस्फटिको विलक्षणः कश्चित्कचिद्भवति तत्प्रमालासुरमित्यर्थः, 'दिव्वं'-दिविभव-विलक्षणं वा दिव्यम् 'देवदूसजुयलं'-देवदूष्ययुगलम् देव परिधानीयक्षम वासोयुगम् , 'णियंसेई' निवस्ते-परिधत्ते, 'णियंसेत्ता' निवस्य-परिधाय 'हारंपिणदेति' हारं-पिनाति-उरसि प्रक्षिपति, तत्र-हारः-अष्टादशसरिकः, 'हारं पिणिद्वेत्ता' हारं पि'ना, ‘एवं एगावलिं पिणिधंति'-एवमेकावलिं विचित्रमणिकां पिनाति 'एगावलि पिणिवेत्ता'-एकावलि पिना, ‘एवं एतेणं अमिलावणं-एवमेतेनाभिलापेन, "मुत्तावलिं' मुक्तावलि मुक्ताफलमयीं मालाम् 'कणगावलि' कनकमणिमयीं मालाम् रयणावलिं' रत्नावलिं-रत्नमयीं मालाम् 'कडगाई कटकानि-कलाचिकाभरणानि, तथा शुभ्र-धवल, 'कणगखइयंतकम्म' एवं जिसके दोनों अंचल-छोर 'केवान कनक केनारों से खचित थे ऐसे 'आकास फालिहसरिसप्पभं' आकाश और स्फटिक के जैसा-जो अपनी प्रभा से चनक रहा था - 'दिव्य अतएव स्वर्गीय होने के कारण प्रचलित वस्त्र से बिलकुल अनोखा था ऐसे 'देवदूसजुयलं' देवदूष्य युगल को देवों के पहिरने योग्य वस्त्र युगल को 'णियंसेइ' पहिरा 'णियसित्ता' देवदूष्य युगल को धारण करके फिर उसने 'हारं पिणद्वेइ गले में १८ लर का हार को पहिरा 'हा पिण देता' हार को पहिर कर फिर उसने 'एवं एगावलि : पिणिधंति' एक एकावली हार विशेष-को पहिरा 'एगावलि पिणिंघेत्ता' . एकावली पहिन कर फिर 'एवं एतेणं अभिलावेणं उसने इसी अभिलाप-कथन के अनुसार 'मुत्तावलि' मुक्तावली-मुक्ताफल मयी माला को-कणगावलि' कनकमणिमयी माला को 'रयणावलिं' रत्नमयी फालिह सरिसप्पभ' मा भने टिना २वी पोतानी तथा रसायही रहा ता. 'दिव्य' तेथी १२ सय थाना २णे प्रत्यासित वनीथी मे हम दुध न उता मेवा 'देवदूसजुयलं' हेक्ष्य युल २ हेवान परवा योग्य सेवा पत्र युगसने 'णियंसेई' पडा "णियंसेत्ता' हेवध्य युगलने धारण ४ीन. ते पछी तो 'हारपिणद्धेई' १८ २५८२ सेवाको मायाहार गजामा पडया 'हारंपिणद्वेत्ता' २ पशन ते पछी तेथे 'एगं एगावलि पिणद्धति' मेपलि-डा२विशेषने धारण ये 'एगावलि पिणिवेत्ता' साक्षी डारने पडेशन 'एवं एतेणं अभिलावेणं' तेरी म मलिशा५-४थन प्रमाणे 'मुत्तावलिं' भुतापली-भुता ५८ वाणी भावाने 'कणगावलि' नभयी भागाने 'रयणावलिं' रत्नानी भागाने 'कडगाई' ४ीन-islan मासूपराने 'तुडियाई' त्रुटितान
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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