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________________ E जीवाभिगमसूत्रे २८६ र्थकांश्च गृहीत्वा, 'जेणेव महाहिमवंत रुप्पिवासहर पन्त्रता तेणेव उवागच्छति' यत्रैव महाहिमवद्रूप्य वर्षधरपर्वता स्तत्रैवोपागच्छन्ति, 'तेणेव उवागच्छित्ता सव्त्र पुष्फे तं चेव' - तत्रैव उपागत्य महाहिमवदादिषु निर्गत्य सर्व पुष्प माल्यौ - पी सिद्धार्थकां गृह्णन्ति, गृहीत्वा 'जेणेव महापउमद्दह महापुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति-यत्रैव महापद्महूद महापुण्डरीक हूदास्तत्रैवोपागच्छन्ति, 'तेणेव उवागच्छिता' तत्रैव महापद्महदादिपूपागत्य, 'जाई तत्थ उप्पलाई तं चेच' यानि तत्रोत्पलादीनि माङ्गल्यानि तानि गृणन्ति, तानि गृहीत्वा - ' जेणेव हरिवासेरंम्भगवा सेति जेणेव हरकांत हरिकांत - गरकांत-णारी कांताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति' - यत्रैव हरिवर्पोरम्यक वर्ष इति यत्रैव हरकान्त हरिकान्त नरकान्त और उत्तमसिद्धार्थों को लिया 'सिद्धत्थेय हित्ता' सिद्धार्थों को लेकर फिर वे 'जेणेव महाहिमवंत रुप्पिवासहर पत्र्वया 'तेणेव उवागच्छंति' जहां महाहिमवान और रुप्यपर्वत थे वहां पर आये 'तेणेव उवागच्छित्ता सच्च पुष्फे तं चेव' वहां आकरके उन्होंने सर्व पुष्पों को सर्व मालाओं को सर्व औषधियों को और सिद्धार्थ कों को लिया लेकर फिर वे 'जेणेव महाप उमद्दह महाउंडरीय दहा तेणेत्र उवागच्छंति' जहां महापद्महृद और महापुण्डरीक हद थे वहाँ पर आये 'तेणेव उवागच्छित्ता' वहां आकरके 'जाई तत्थ उप्पलाई त 'चेव' जितने वहां उत्पल से लेकर शतपत्र एवं सहस्रपत्रवाले कमल थे उन सबको उन्होंने लिया और उन्हें लेकर फिर वे 'जेव हरिवाल रम्भगवासंति जेणेव हरकान्तहरिकंत परकंत नारिकताओ सलिलाओ तेगेव उवागच्छंति' जहां पर हरिवर्ष और रम्यकवर्ष तथा हरकान्त - हरिकान्त आदि महानदियां सिद्धार्थने (सर्ववान सीधा 'सिद्धत्थेय गेव्हित्त' सिद्धार्थओने सहने ते पछी तेथे 'जेणेव महाहिमवंत रुपिवासहरपञ्चया तेणेव उवागच्छंति' नयां भहाडिभवान भने ३ध्य पर्वत हुता त्यां तेथे मान्या. 'तेणेव उवागच्छित्ता सव्त्र पुष्फे तं ચેવ' ત્યાં આવીને તેઓએ બધી જ પ્રકારના પુષ્પાને સર્વાં માળાઓને સ પ્રકારની ઔષધિયાને અને સિદ્ધાકાને લીધા તે બધા દ્રવ્યે લઈને તે પછી तेथे! 'जेणेव महापउमदए महापु डरीय दहा तेणेव उवागच्छंति' न्यां भड्डा पद्मह भने भहां पुंडरी व हुता त्यां तेयो न्याव्या. 'तेणेव उवागच्छित्ता' त्यां भावी 'जाईं तत्थउप्पलाइ तं चेव' त्यां मागण नेटसा उत्यसोथी सहने शतपत्रवाणा ने સહસ્રપત્રા વાળા કમળા હતા એ મધાને તેએએ લીધા અને તેને લઈને તે પછી तेथे 'जेणेव हरिवासे रम्मगवासंति जेणेव हरकांत हरिकंत णरकांत नारिकताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति' ल्यां भागण हरिवर्ष भने रभ्यवर्ष तथा हरि
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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