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________________ २८२ मोवाभिगमसूत्रे क्षीरसमुद्रसमीपं गत्वा, ‘खीरोदगं गेण्हंति'- क्षीरसमुद्रजलं गृह्णन्ति, 'खीरोदगं गेण्डित्ता'-क्षीरोदजलं गृहीत्वा 'जाई तत्थ उप्पलाई जाव सतसहस्स पत्ताई'यानि 'तत्र क्षीरोदस्थोत्पलानि कमल-कुमुद- नीलोत्पल-पुण्डरीकशतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति 'गेण्हित्ता'-तानि तानि संगृह्य-"जेणेव पुक्खरोदे समुदे तेणेव उवागच्छंति'-यत्र पुष्करोदसमुद्र स्तत्रैवोपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता'-पुष्करोदमुपागत्य, 'पुक्खरोदगं गेण्हंति'-पुष्करोदकं गृहन्ति, 'पुक्खरोट्गं गेण्हित्ता'पुष्करोदकं गृहीत्वा, 'जाई तत्थ उप्पलाइजाब सत सहरसपत्ताई ताई गिण्हंति' यानि तत्रोत्पलानि यावच्छतसहसपत्राणि तानि तानि गृह्णन्ति, 'गेण्डित्तागृहीत्वा, जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयातिवासाई'-यत्रैव समयक्षेत्र पर आये 'तेणेव उवागच्छित्ता' वहां आकर के उन्होंने 'खीरोदगं गिण्हंति' क्षीरोदक को भरा खीरोदगं गेमिहत्ता' क्षीरसागर के जलको भरकर फिर उन्होंने 'जाई तत्थ उप्पलाईजाव सतसहस्सपत्ताई' जितने भी वहां पर उत्पल यावत्-कुसुदनीलोत्पलं पुण्डरीक शतपत्र और सहस्र पत्र कमल थे। 'ताई गिण्हंति' उन सबको लिया 'गिणिहत्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छति' लेकर फिर वे सबके सब जहां पुष्करवर समुद्र था वहां पर आये 'उवागच्छित्ता 'पुक्खरोदगं गेण्हंति' वहां आकर उन्होंने उसमें से पुष्करोदक भरा 'पुक्खरोद्गं गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाईजाव सतसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति' पुष्करोदक भरकर फिर उन्होंने वहां पर जितने उत्पल यावत् शतपत्र और सहस्त्र पत्रवाले कमल थे उन सबको लिया 'गिण्हित्ता जेणेव समयखेत्ते जेणेत्र भरहेरवयाई वासाइं। उन ज्यात दी५.समुद्रीनी क्यमा थन यासता यासता 'जेणेव खीरोदे तेणेव उवागच्छंति' या क्षाशधि समुद्र तो त्यां ते माव्यो 'तेणेव उवागच्छित्ता' त्यो मावीर 'खीरोदगं गिण्हंति' क्षीश मयु 'खीरोदगे गिण्हित्ता' क्षीर सागरमांथी क्षीरसागरन ससने सरीने ते पछी तेणे 'जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव सतसहस्स पत्ताई' २i त्यो माग पट यावत् भुई नीलोत्पदा पुरी शतपत्र मन सस पत्र भी उता 'ताई गिव्हिंति' मधाने सीधा 'गिण्हित्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति' ते सधने पछीथी ते मा ज्यां Y०४२१२ समुद्र तो त्या मागणतया माव्य। 'उवागच्छित्ता पुक्खरोदगं गेहंति' त्या मावी तमाम तमाथी ५४ लयु 'पुक्खरोदगं गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं जाव सतसहरसपत्ताई ताई गिण्हंति' ५०४२।४४ मरीन ते पछी तमा એ ત્યાં આગળ જેટલા ઉત્પલ યાવત્ શતપત્ર અને સહસ્ત્ર પત્રોવાળા કમળો डा ये मान सीधा 'गेण्हित्ता जेणेव समवायखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई वासाई
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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