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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र. ३ उ. सू.६५ विजयदेवाभिषेकवर्णनम् .. २७३, पन्ति । 'तए णं से विजए देवे'-तत एतद्वचः श्रवणानन्तरं खलु विजयो देवः स:-'तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए'-तेषां सामानिकपर्पदुपपत्रकानां देवानामन्तिके 'एयमहूँ सोच्चा' एतत्पूर्वोदित हितवचनमाकी निसम्म'-निशम्य-मनसि परिणमय्य, 'हट्टतुट्ठ जाव हियए'-हृष्टतुष्ट परमानन्दितः सौमनस्थितः हर्षवशविसर्पहृदयो हृष्टतुष्टोऽतीवतुष्टः, यद्वा-हृष्टो नाम विस्मयमापन्नः यथा-शोभनमहो ! एतैरुपदिष्टम्, तुष्टस्तोष गतः यथा-भव्यमभूत् यदेतैरि स्थमुपदिष्टम्, तोषवशादेव चित्तमानन्दितम् स्फीतीभूतम्, प्रीतमना:-प्रीतं-प्रसनं शरदि सरितां जलमिव यस्याऽसौ मनःप्रीतमनाः जिनार्चनविषये बहुमानपरायणः ततः क्रमेण बहुमानोत्कर्षवशात्परमसौमनस्थितः, शोभनं मनो यस्याऽसौ सुमनाः तस्य भावः सौमनस्यं परमं च सौमनस्यं जातमस्येति सौमनस्थितः (तारकादित्वादितर च-) अतएव-विसर्पदधृदयः हर्षवलेन चलद हृदयो विजयदेवो देवः, 'देवसयणिज्जाओ'-'अब्भुढेइ'-देवशयनीयादभ्युत्तिष्ठति-उत्थितो भवतीत्यर्थः, शब्दों से बधाया 'तएणं से विजए देवे' इसके बाद वह विजयदेवतेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए' 'विजय देवने जब उन सामानिकदेवों के पाससे 'एयमढे सोच्चा' इस अर्थ को-हित कारक कथन को सुना-तो सुनकर और 'निसम्म' उसे हृदय में धारण करें वह 'हट तुट्ट जाव हियए' हृष्ट हुआ और तुष्ट हुआ-अथवा-हृष्ट हुआ-विस्मय युक्त हुआ-ओह-इन सबने बहुत सुन्दर कहा तथा तुष्ट हुआ बहुत अच्छा हुआ जो इन्होने मुझे इस प्रकारका उपदेश दिया इस विचार से उसका चित्त इस कार्य में बहुत वढगया-शरदकाल में नदियों के जल के प्रसन्न मन समान हुआ वह जिनार्चन-कामदेव की मूर्तिके विषय में बहमानशाली होकर परम सौमनस्थित हआ-सवं कार्यको छोडकर इसी कार्य के करने में उसका मन कर यह कार्य करूं, पछी से वियोव 'तेसिं सामाणिय परिसोववण्णगाण देवाणं अतिए' विभयहेवे न्यारे के सामानि वो पासथी 'एयमढे सोच्चा' मा मथने अर्थात् खिता पंथनने सामन्यु मने सामजान मने 'निसम्म' तेन हत्यमा धार ४शन तयो 'हतुद जाव हियए' इष्ट थया तुष्ट था विभय युः थयां मरे 'मा બધાએ ઘણું જ સુંદર કહ્યું. ઘણું સારું થયું કે આમણે મને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આ. આ વિચારથી તેનું ચિત્ત એ કાર્ય માટે ઘણું વધી ગયું શરદ કાળમાં નદીના જલની જેમ પ્રસન્નમન થઈ તે જનાર્ચન–કામદેવની મૂતિ સંબંધમાં ઘણુંજ માનસક્ત બનીને પરમ સૌમનસ્થિત થયે. બધાજ કાને? અડીને આજ કામ કરવામાં તેનું મન કયારે આ કાર્ય કરું એ રીતે ઉતાવળું जी० ३५
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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