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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३. उ. ३ सू. ६४ उपपातसभायाः वर्गनम् २५ई 'सुधर्मासभा तदेव निरवशेषं यावद्गोमानस्यो विश्रामस्थानं भूमिभाग उल्लोकस्यैवेति । 'तस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स' तस्य खल बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य, 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे, 'एत्थ णं एगा महं मणिपेडिया पन्नत्ता' अत्र बहुमध्यदेशभागे एका बृहत्तरा मणिपीठिका विश्रुता सा खलु - 'जोयणं आयामविक्खंभेणं' योजनमात्रमायामविस्ताराभ्याम् ' अद्धजोयणं बाहल्लेणं' - अर्धयोजनं वाहल्येन - धनुःसहस्रमानं पृथुत्वेन 'सव्वमणिमया अच्छा ०' सर्वभावेन मणिमयी - अच्छा श्लक्ष्णा-लण्हा घृष्टा मृष्टा नीरजस्का निर्मला निष्पङ्का निष्कण्टकच्छाया सप्रभा सोद्योता समरीचिका प्रासादीया दर्शनीयाऽभिरूपा प्रतिरूपा इति 'ती सेणं मणिपेढिया उप्पि' तस्याः मणिपीठिकाया उपरि खलु 'एत्थ णं एगे महं सीहासणे पन्नते' अत्र मणिपीठिकोपरि- एकं महत्सिहांसनं वर्णन मणियों के स्पर्श तक कर लेना, जैसा कि पहिले यह किया जा चुका है। यही बात 'जहा सुधम्मा सभा तं चैव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभागे उल्लोए तहेव' इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की गई है 'तस्स णं बहुसमरमज्जिस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता' उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के बीच में एक विशाल मणिपीठिका है 'जोयणं आयामविखंभेण अद्धजोयणं बाहल्लेगं सव्वमणिमया अच्छा' यह मणिपीठिका लम्बाई चौडाई में एक योजन की हैं और मोटाई में आधे योजन की है । यह सर्वात्मना मणियों की बनी हुई है तथा अच्छा-आकाश और स्फटिकमणि के जैसी निर्मल हैं यहां इसके वर्णन में 'श्लक्ष्णा, लण्हा, घृष्टा, मृष्टा, ' इत्यादि विशेषणों का भी कथन कर लेना चाहिये, और यह कथन प्रतिरूप विशेषण तक करना चाहिये 'तीसेणं मणिपेढियाएं उप इस मणिपीठिका के ऊपर 'एत्थ णं महं एगे सीहासणे पन्नत्ते' एक 'जहा सुहम्मा सभा तं चैव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभागे उल्लोए तहेव' २मा सूत्रपाठे द्वारा अगर ४रेस छे. 'तत्स णं बहुसमरणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झ देसभाए एत्थणं एगा म्हं मणिपेढिया पण्णत्ता' मे महुसभरभणीय लूभिलागनी पथभां मे विशास भणिपीडा छे. 'जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्व मणिमया अच्छा' मा मशिपी सभामां मे योजननी છે, અને તેના વિસ્તાર અર્વાચેાજનના છે. તે સર્વ રીતે મણિયાથી અનેલ છે. તથા શ્રઘ્ધા' આકાશ અને સ્ફટિક મણિના જેવી તે નિલ છે, અહિં તેના वनमां लगा, लहा, घृष्टा, सृष्टा' विगेरे विशेषशोनु यन पशु वरी से. 'तीसेगं मणिपेडियाए उधिं मे मणिपीठानी उपर 'रत्थ णं मह एगे
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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