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________________ १९३ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.६१ सुधर्मासभायाः वर्णनम् फेनरजतनिकरप्रकाशं तिलकरत्नार्धचन्द्रचित्रम् नानामणिदामालंकृतम् अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णम् तपनीयवालुकाप्रस्तटम् शुभस्पर्शम् सश्रीकरूपम् प्रासादीयम् दर्शनीयम् अभिरूपम् प्रतिरूपम् इत्यादि माल्यदामपर्यन्तं वर्णनीयम् ॥ ___ 'तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पन्नत्ता' तेषां खल द्वाराणां पुरतोऽग्रभागे मुखमण्डपाः विशिष्टभावकलिताः प्रज्ञप्ताः, 'तेणं मुहमंडवा ते खलु मुखमण्डपाः, 'अद्ध तेरस जोयणाई" आयामेणं-'अर्द्धत्रयोदशयोजनानि सार्धद्वादशानि योजनानीत्यर्थः आयामेन-दैर्येणं 'जोयणाई सकोसाई विक्खंभेणपड्योजनानि सक्रोशानि-क्रोशाधिकानीत्यर्थः विष्कम्भेण पृथुत्वेन, 'साइरेगाई दो जोयणाई उडूं उच्चत्तेणं' सातिरेके द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, 'मुहमंडवाणेगखंभसयसंनिविटा' ते मुखमण्डपा अनेक स्तम्भशतसन्निविष्टाः 'जाव उल्लोया भूमिभाग वण्णाओ' यावदुल्लोका भूमिभागवर्णकः उल्लोकस्य भूमिभागादीनां च वर्णनं यथा पूर्वप्रकरणे कृतं तथैवात्रापि कर्तव्यम् ॥ 'तेसि णं मुहमंडवाणं उवरिं-तेषां खलु मुखमण्डपानामुपरितनभागे, 'पत्तेयं पत्तेय' प्रत्येकं प्रत्येकम्, तक के पाठ का अर्थ भी अन्य प्रतियों से जाना जा सकता है वहां व्याख्या इन सब पदों की कर दी गई है। 'तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पन्नत्ता' इन दरवाजों के सामने मुखमंण्डप-विशिष्ट भावयुक्त स्थानविशेष हैं। 'तेणं मुहमंडवा' ये सब मुखमंडप अद्धतेरसजोयणाई' १२॥ योजन के 'आयामेणं' लम्बाईवाले हैं। "छ जोयणाई सकोसाइं विक्वंभेणं' और एक कोश अधिक ६ योजन की चौडाइवाले हैं। 'साइरेगाइं दो जोयणाई उड्डूं उच्चत्तणं' कुछ अधिक दो योजन की इनकी ऊंचाई है 'मुहमंडवा अणेगखंभसयसंनिविट्ठा' ये सब मुखमंडप सैंकडों खंभो से युक्त है। 'जाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ' यहां उल्लोक પાઠને સંગ્રહ થયેલ છે. તેનો અર્થ પણ પહેલા આવી ગયેલ છે. તે ત્યાંથી સમજી aal. 'तेसिणं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता' से ४२वानमानी सामे भुम भ७५ विशेष प्रानला युश्त स्थान विशेष छ. 'ते णं मुहमंडवा' से मार भुस भयो 'अद्धतेरस जोयणाइ” १२॥ सा मा२ योननी 'आयामेणं' Ans qा छे. 'छ जोयणाई सक्कोसाई विक्ख भेणं' मने मे सथी पधारे छ याननी पडा । छ. 'साइरेगाई दो जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं' ४४ पधारे में योगननी ती या छ. 'मुहम डवा अणेगखभसयसंनिविद्वा' से मधा भुसभापो से ४ स्तमाथी युश्त छ. 'जाव उल्लोया भूमिभागवण्णओं' અહીંયાં ઉલ્લેક અને ભૂમિભાગ વિગેરેનું વર્ણન જેમ પહેલાના પ્રકરણમાં जी० २५
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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