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________________ १८६ जीवामगमसूत्रे 'सुसिलिविसि संठियपरात्यथ वेरु लियविमलखंभा' सुलिष्टः संयोजितो यो विशिष्टो लहः सुधालेपविशेषः हंस इव श्वेततर स्तत्र संस्थित प्रशस्तवैडूर्य· मणिभिर्विमलाः स्तम्भाः यस्याः सा सभा 'णाणामणिकणगरयण खड़य उज्जल बहसमसुविभत्तचित्ता णिचियरमणिज्जकुट्टिमतला' नानामणिकनकरत्नैः खचितः, अंतोऽप्युज्ज्वलनिर्मलः बहुसमः, अत्यन्तसमः सुविभक्तचित्रनिचितः -चित्रर्व्याप्तो रमणीयश्च कृत्रिमतलो यस्यां सा - नानामणि कनकरत्नखचितोज्ज्वलबहुसमसुविभक्तचित्र निचितरमणीयकृत्रिमतला, 'ईहामिय= उसभ-तुरग-परमगर - विहगवालगकिण्णररुरुसर भचमरकुंजरवणलय पउमलय भत्तिचित्ता' ईहामृगवाजे पर शोभा बढाने के निमित्त एक शालभञ्जिका पुत्तलिका बनी हुइ है 'सुलिसिह लट्ठसंठियपसत्थवेमलिया विमलखंभा' इनके खम्भों पर सुधा - चूना- का बहुत ही अच्छी तरह से लेप पलस्तर - किया गया है और उसमें वैडूर्यमणि स्वचित है । इस कारण खम्भे इसके वडे निर्मल प्रतीत होते हैं 'लह' शब्द का अर्थ मनोज़ है सुश्लिष्ट शब्द यह 'लडका विशेषण है अच्छी तरह से लगायागया' ऐसा अर्थ सुश्लिष्ट पद् ' का है 'णाणामणिकणगरयणरय उज्जलवहुसम सुविभत्त चित्ता णिचि यरमणिकुट्टिमतला' इस सभा का जो भूमिभाग है वह अनेक मणियों से सुवर्ण से एवं रत्नों से (जडा हुवा) खचित्त है अतः वडा ही वह उज्ज्वल लगता है । तथा - यह भूमि भाग एकसा है- ऊंचा नीचा नहीं है निबिड है कठोर है-फुसफुसा नहीं है सुविभक्त है और रमणीय है । 'इहामिय - उसम - तुरग - णर-मगर - विहग-वालग - किण्णर- रुरुતારણાની ઉપર બહારના દરવાજાની ઉપર શેાભા વધારવા માટે એક અતિ રમश्रीय शासल अ-पुतजी मनेस छे. 'सुसिलिट्ठ विसिट्ठलट्ठसंठिय पसत्यवेरुलिया વિમવુંમ' તેના થાંભલાઓની ઉપર સુધા કહેતા હું સને સમાન અતિ ઉજ્વલ ચુનાના લેપ ઘણીજ સુંદર રીતે કરેલ છે. અર્થાત્ પલાસ્તર કરેલ છે. અને તેમાં વૈય મણિયા જડેલા છે. તેથી તે સ્ત ́ા ઘણાજ નિ`ળ જણાય છે. ‘ શબ્દના અથ મનાજ્ઞ એ પ્રમાણે છે. સુશ્લિષ્ટ એ શબ્દ તુ” એ પદનું વિશેષણ છે. सुश्झिष्ट पहनो अर्थ सारी रीते सगाडवामां आवे मे प्रभा थाय छे. 'णाणामणिकणगरयणरइय उज्जल बहुसम सुविभत्तचित्ता णिचियरमणिज्ज कुट्टिमतला' या सलाना ने ભૂમિભાગ છે, તે અનેક પ્રકારના શ્રીમતિ મણિચાથી સુવણુથી અને રત્નાથી જડેલ છે. તેથી તે ઘણુાજ ઉજ્જવલ લાગે છે. તથા આ ભૂમિભાગ એક સરખા छे थे। नीथे। नथी. निमिड-गाढ छे, और छे, पोयो नथी. सुविलात छे. अने रभाशीय छे, 'इहामिय उसभतुरगणर मगर बिगबालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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