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________________ १७० जोयाभिगमसूब पीठिका मणिपीठविशेषः 'सा च एगं जोयणं आयामविक्खंभेणं' सा च मणिपीठिका-एक योजनं दैयविस्ताराभ्यां भवति, 'अ जोयणं वाहल्लेणं' वाहल्येन स्थौल्येन च खलु सा मणिपीठिकाऽर्धयोजनप्रमाणा, 'सव्य मणिमई अच्छा-सहा' सर्वमणिमयी-सर्वात्मना मणिनिर्मिताः अच्छाः स्फटिकवनिर्मला श्लक्ष्णाः लण्हाः घृष्टाः मृष्टाः नीरजरकाः निर्मला निप्पङ्का निष्कण्टकच्छाया -सप्रभास-उद्योता-समरीचिका-प्रासादीया दर्शनीयाऽभिरूपा प्रतिरूपेति ॥ 'तीसे णं मणिपीढियाए उवरि' तस्याः खलु-मणिपीठिकाया उपर्यु र्ध्वभागे, 'एगं महं सीहासणे पन्नत्ते' एकं महत् सिंहासनं प्रज्ञप्तम्-क्लुप्तम्, 'एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारो' एव मत्र परिवारसहितसिंहासनवर्णनं कर्तव्यम् । यह मणिपीठिका आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा एक योजन की है । 'अडजायणं वाहल्लेणं' तथा-मोटाइ में आधे योजन की है यह 'सवमणि मई अच्छा साहा' समस्त रूप से मणियों की बनी हुइ है तथा स्फटिक के जैसी यह निर्मल है श्लक्ष्ण-चिकनी है और यावत् यहां यावत्पद से 'लण्हा, घृष्टा, भृष्टा नीरजस्का निर्मला, निष्पङ्का निष्कंटकच्छाया समभा स उद्योता समरीचिका प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा, इन पदों का ग्रहण हुआ है इन लष्ट आदि पदों का अर्थ अन्यत्र लिखागया है । अतः वहां से देखलेना चाहिये 'तीसेणं मणीपीठियाए उवरि' इस मणिपीठिका के ऊपर 'एगं महं सीहासणे पन्नत्ते' एक बहुत बडा सिंहासन कहागया है । 'एवं सीहासणवण्णओ सपरिबारों' इस सिंहासन के आस पास और भी अनेक भद्रासन आदि रूप सिंहासन है इस तरह से सिंहासन का परिवार सहित यहां वर्णन पण्णत्ता' : en मोटी भालपा6ि1 वामां आवेस छ. 'सा च एगं जोयणं आयामविक्खभेणं' २मा मलि मायाम अने वि- पापा स मनन छ. 'अड्ढजोयणं वाहल्लेणं' तथा मायनी अपेक्षाथी अर्धा એજનની છે. અને સમસ્ત રીતે મણિની બનેલ છે. તથા તે સ્ફટિકના જેવી નિર્મળ છે. શ્લણ ચીકણી છે. અને યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અહીંયાં ચાવત્પદથી 'लण्हा, घृष्टा मृष्टा नीरजस्का निर्मला निष्पङ्का निष्कंटकच्छाया सप्रभात उद्योता समरीचिका प्रासादीया दर्शनीया, अभिरूपा' ५:ो अडएर ४२राया छ. २मा सष्ट વિગેરે પદોને અર્થ પહેલા કહેવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી તે ત્યાંથી જોઈ देवो. 'तीसेणं मणिपाठिया उबरि' मा भलिए पानी ५२ 'एगं महं सीहासणे पण्णत्ते से घा विशाल सिहासन वामां आवेस छे. 'एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारों' सिंहासननी मानुमान्नु मान्न पY मने मद्रा
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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