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________________ प्रमेयद्यौतिका टीका प्र.१० सू.१४८ जीवानां पञ्चविधत्वनिरूपणम् १४५३ 'अकसाइणो तहा जहा हेटा' यथाऽधस्तथाऽकपायी साधपर्यवस्थितः सादिसपर्यवसितश्च द्विधा ज्ञेयः, अपर्यवसितत्वात्प्रथमस्य साधपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् सादि सपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् तावताकालेन भूयः श्रेणीलाभात, उत्कपतोऽनन्तं कालमनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतश्चाऽपार्घ दशोनं पुद्गलपरावर्तम् भूयोऽप्येतावता कालेनाऽनुभूतपूर्वस्य अकपायित्वस्याऽकपायित्वभावात् । 'अप्पाबहुयं०' अल्पबहुत्वम् कतरेकतरेपामेपामल्पा वा० भगवानाहगौतम ! 'अकसाइणो सव्वत्थोवा' सर्वस्तोका अकपायिणः सिद्धाः सिद्धानामेवाकपायित्वात्, 'माणकसाई तहा अणंतगुणा' तेभ्यो मानकपायिणोऽनन्त'अकसाइणो तहा जहा हेट्ठा' अकषायी जीव दो प्रकार के होते हैं एक सादि अपर्यवसित और दूसरे सादि सपर्यवसित इनमें जो सादि अपयवसित अकषायी जीव हैं उनके अन्तर होता नहीं है और जो सादि सपर्यवसित अकषायी जीव हैं उनके अन्तर होता है और वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट से अनन्त कालका होता है । इस में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती है । तथा क्षेत्र की अपेक्षा अर्धपुद्गल परावर्त काल समाप्त हो जाता है । इसके बाद वह नियम से अकषायी अवस्था वाला बन जाता है । ___ 'अप्पा बहुयं इनके अल्पबहुत्व का विचार-इस प्रकार से है'अकसाईणो सम्वत्थोवा' अकषायी जीव सब से कम हैं। क्योंकि अकषायी सिद्ध जीव होते हैं और वे सब से कम हैं । 'नाणकसाइणो तहा अर्णतगुणा' इनकी अपेक्षा मानकषायी अनन्तगुणे अधिक हैं। भुत मोटु डाय छे. 'अकसाइणो तहा जहा हेट्ठा' मायी ०१ प्रार ના હોય છે. એક સાદિ અપર્યવસિત અને બીજા સાદિ સપર્યવસિત તેમાં જે સાદિ અપર્યવસિત અકષાયી જીવ છે. તેમને અંતર હેતું નથી. અને જે સાદિ સપર્યવસિત અકષાયી જીવ છે. તેમનું અંતર હોય છે, અને તે જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તનું અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંત કાળનું હોય છે. તેમાં અનંત ઉત્સર્પિણી અને અનંત અવસર્પિણી સમાપ્ત થઈ જાય છે. તે તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અર્ધપુદ્ગલ પરાવર્તકાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. તે पछी ते नियमथी २५४पायी अवस्था पाणी मनी लय छे. 'अप्पा बहुयं तमना मातमत्वनु ४थन मा प्रभारी छ. 'अकसायिणो सब्बयोवा २५४पायी જીવ સૌથી ઓછા છે. કેમકે–અકવાયી સિદ્ધ જીવ હોય છે. અને તેઓ સૌથી सौछ। छे. माणकसाइणो तहा अणतगुणो' तेना ५२तां माना जनन ગણું વધારે હોય છે. કેમકે-નિગદ જી સિદ્ધો કરતાં પણ અનંતગણુ છે.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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