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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४८ जीवानां पञ्चविधत्वनिरूपणम् १४५१ जहन्नेणं एक सययं' लोभापायी जघन्येनकं समयम्-स चोपशमश्रेणेः प्रतिपतन् लोभकपायोदय प्रथमसमयानन्तरं मृतः प्रतिपत्तव्यः, मरणसमये कस्यापि क्रोधायुदयसंभवात् क्रमेण प्रतिपतनं हि मारणाऽभावे-न तु मरणेऽपीति । 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' उत्कणान्तर्मुहूर्त कायस्थितिः । अकपायी भदन्त ! अकपायोति कालतः कियचिरम् ? गौतम ! 'अकसाई दुविहे जहा हेहा' अकपायी द्विविधः सायपर्यवसितः केवली १ सादि सपर्यवसित उपशान्तकपायः २ स च जघन्येनैकं समयम् द्वितीये समये मरणतः क्रोधाधुदयेन सकपायत्वप्राप्तेः उत्कर्पतोऽमुहर्त्तम्' ऐसा सिद्धान्त का वचन है। 'लोभकसाइस्स जह० एक सम० उक्कोसेणं अंतोमु०' लोकपोयी लोभकषायी रूप से कम से कम एक लमय तक और अधिक से अधिक एक अन्तर्मुहूर्त तक होता है। ऐसा वह जीव उपशमणि से गिर कर लोभ कषाय के उदय के प्रथम समय के अनन्तर भरने पर होता है। क्योंकि मरण के समय में किसी २ जीच को क्रोधादि कषायों का उदय हो जाता है। मरण के अभाव में क्रम २ से पतन होता है। मरने पर क्रम २ से पतन नहीं होता है 'अकसाई तहा जहा हेहा' अकषायी जीव दो प्रकार के होते हैं जैसे-एक सादि अपर्यवलित केवली और दूसरे सादि सपर्यवसित उपशान्त कषाय वाले जीव है यह द्वितीय विकल्प बाला जीव जघन्य से एक समय तक अकषायी रहता है क्योंकि द्वितीय समय में वह मरण होने से क्रोधादि कषाय का उसके उद्य हो जाता है इससे वह सकषायी हो जाता है । तथा उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहर्त तक योगकालोऽन्तमुहूर्तम्' मा प्रभारी सिद्धांतनु क्यन है. लोभकसाइस जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोहुत्तन्' सोसायी समायापाथी ઓછામાં ઓછા એક સમય પર્યન્ત અને વધારેમાં વધારે એક અંત. હર્ત પર્યન્ત રહે છે. એ તે જીવ ઉપશમ શ્રેણીથી પતિત થઈને ભકષાયના ઉદયના પહેલા સમય પછી મરણ થાય છે. કેમકે મરણના સમયે કઈ કઈ જીવને કોઇ વિગેરે કપાયને ઉદય થઈ જાય છે. મરણના અભાવમાં કમ ક્રમથી પતન થાય છે. મર્યા પછી ક્રમ ક્રમથી પતન थतु नथी. 'अकसाई तहा जहा हेटा' माथी १ मेघाना डाय छे. भो –એક સાદિ અપર્યવસિત કેવલી અને બીજા સાદિ સપર્યવસિત ઉપશાંત કાર્ય વાળા જીવ છે. આ બીજા પ્રકારના વિકલ્પ વાળા જીવ જઘન્યથી એક સમય પર્યત અકષાયી રહે છે.. પછી જ સમયમાં તેનું મરણ થવાથી કોઇ વિગેરે કપાયને તેને ઉદ, છે. તેથી એ સાયી થઈ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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