SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४५० जीवाभिगमसूत्र -लोभकसाई-अकसाई' तद्यथा-क्रोधकपायी-मानकपायी-मायाकपायी-लोभकपायी-अकपायी, तत्र-कपः संसारस्तस्याऽऽयः कपायः क्रोधादयः क्रोधादयः कपायाः सन्ति येषान्ते क्रोधादि कपायिणो ज्ञेयाः । एषां कायस्थिति दर्शयितुमाह'कोहकसाई' इत्यादि, हे भदन्त ! क्रोधकपायि प्रभृतयः क्रोधादि कपायित्वरूपेण कियन्तं कालं यावद्भवति ? भगवानाह-गौतम ! 'कोहकसाई माणकसाई मायाफसाई णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्त-उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त' क्रोधकपायि-मानकपायि-मायाकपायिणः खलु जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कर्पणान्तर्मुहूर्तम् । 'लोमकसाइस्स मायाकसाई लोभकसाई अकसाई क्रोधकषायी, मानकपायी, मायाकषायी, लोभकषाई और अकषायी इन पांच प्रकार के जीवों में ही समस्त संसारी जीवों का और असंसारी जीवों का समावेश हो जाता है । क्रोधकषाय जिनके हैं ये क्रोधकषायी हैं इसी तरह से मान आदि कषायों वाले जीव मानकषायी आदि हैं। और जो क्रोधादि कषायों के सद्भाव से रहित है वे अकषायी जीव हैं । 'कोहकसाई०' हे भदन्त ! क्रोधकषायी प्रभृति जीव क्रोधकषायी आदि रूप से कितने काल तक रहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे गौतम ! 'कोहकसाई माणकसाई, मायाकसाईणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतो' क्रोधकषायी, मानकषायी एवं मायाकषायी जीव क्रोधादि कषाय युक्त रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट से भी एक अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं क्योंकि 'क्रोधाधुपयोग कालोऽन्तकसाई, मायाकसाई, लोभकसाई, अकसाई' ध षायी, भानपायी, भायाકષાયી; લેકષાયી, અને અકવાયી, આ પાંચ પ્રકારના જીવમાંજ બધાજ સંસારીજી ને સમાવેશ થઈ જાય છે. જેમને ક્રોધ કષાય હોય તેઓ ક્રોધ કષાયી છે. એ જ પ્રમાણે માનકષાય વિગેરે કષાવાળા જીવ માનકષાયી વિગેરે પ્રકારથી સમજવા અને જે ક્રોધ વિગેરે કષાયથી રહિત છે. તેઓ અકષાયો ७१ वाय छे. 'कोहकसाई०', भगवन् ! षायी विगैरे वोधકષાયી વિગેરે રૂપે કેટલા કાળ પર્યન્ત રહી શકે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छ - गौतम ! 'कोहकसाई, माणकसाई, मायाकसाईणं जहण्णेणं अंतो मुहुत्त उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त' अधपायी, भानपायी, मने भाया ४षायी व ક્રોધ વિગેરે કષાય યુક્ત પણાથી ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂર્ત પર્યન્ત भने ष्टया ५५ मे मतभुत सुधी रहे छ, भो-'क्रोधाद्युप
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy