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________________ १४१० जीवाभिगमसूत्रे 'तइयस्स नो सुहुम नो वायरस्स नत्थि अंतरं' तृतीयस्य नो सूक्ष्म नो वादरस्यान्तरं नास्ति यतः सिद्धानां साद्यसपर्यवसितत्वम् । 'अप्पाबहु अल्पवहुत्वमेतेषां कतरेभ्यः कस्य ? गौतम ! 'सव्वत्थोवा नो सुहुमा नो वायरा' सर्वस्तोका नो सक्ष्मा नो वादराः 'वायरा अणंतगुणा' वादर निगोदजीवाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाधिकाः। अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात काल का होता है इसमें असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंग्ख्यात अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं ये उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियां अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं उतनी होती हैं। तथा बादर का भी अन्तर इतना ही होता है परन्तु यहां पर क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक लिये गये हैं क्योंकि सूक्ष्म का जघन्य और उत्कृष्ट से काल का प्रमाण इतना ही कहा गया है 'लो सुहुम नो वायरस्स नत्थि अंतरं नो सूक्ष्म नो बादर रूप जो सिद्ध जीव हैं उन का अंतर नहीं होता है क्योंकि ये सिद्ध जीव सादि अपर्यवसित होते हैं । 'अप्पायहु०' हे भदन्त ! इन जीवों में कौन किनकी अपेक्षा अल्प हैं और कौन जीव किनकी अपेक्षा बहुत हैं ? गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-हे गौतम ! 'सव्वत्थोवा नो सुहुमा नौ वायरा' सब से कम नो सूक्ष्म नो बादर जीव हैं। क्योंकि सिद्ध जीव सब से अल्प कहे गये हैं इनकी अपेक्षा 'बायरा अणंतगुणा' वादर जीव अनन्तगुण अधिक हैं । क्योंकि बादर निगोद હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાત કાળનું અંતર હોય છે. ઓમાં અસંખ્યાત ઉત્સપિણિ અને અસંખ્યાત અવસપિણિ સમાપ્ત થઈ જાય છે. આ ઉત્સર્પિણી અને અવસર્પિણી આંગળના અસંખ્યતમા ભાગમાં જેટલા પ્રદેશ હોય છે એટલી હોય છે. અને બાદરનું અંતર પણ એટલું જ હોય છે, પરંતુ અહીંયાં ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અસંખ્યાત લેક ગ્રહણ કરવામાં આવેલા છે. કેમકે સૂમને જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી એટલેજ કાળ પ્રમાણુ કહેવામાં આવેલ છે. 'नो सुहुम नो बायरस्स नत्थि अंतरं' न सूक्ष्म मन न ४२ ३५ २ सिद्ध જીવ છે. તેમનું અંતર હોતું નથી. કેમકે એ સિદ્ધ છ સાત્રિ અપર્યવસિત होय छे. 'अप्पाबहु० सावन्! मेवाभा या ७ या वाना ४२di અલ્પ છે? અને કયા છે જ્યા કરતાં વધારે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है गौतम! 'सव्वत्थोवा नो सुहमा नो बायरा' सौथी माछ। ને સૂક્ષમ ને બાદર છવ છે. કેમકે સિદ્ધ છે સૌથી અલ્પ કહેવામાં આવેલા छ. तेना १२di 'बायरा अणतगुणा' मा४२ व मन त पधारे छ. ३भई
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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