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________________ १३८ लीवाभिगमसूत्र तमुहूर्तम् तावत्कालं निरन्तरभाष द्रव्यग्रहणनिसर्गसम्भवात्तत ऊर्ध्व जीवस्वाभाव्यानियमत एवोपरमतीति । 'अभासए णं भंते ? गोयमा ! अभासए दुविहे -पन्नते तं जहा-साईए वा अपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए' अभाषक: खल भदन्त ! अभापक मर्यादया कियच्चिरकालम् ? गौतम ! अभापको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सादिको वाऽपर्यवसितः सादिको वाऽसपर्यसितः । 'तत्थ गं जे से साइए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुर्त-उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंता उस्सप्पिणी ओसप्पिणी वणस्सइकालो' तत्र खलु यः स सादिकः सपर्यवसितः एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । इसका भाव ऐसा है कि यदि भाषा 'द्रव्य के ग्रहण करने के समय में ही मृत्यु हो जावे या अन्य किसी कारण से भाषा द्रव्यग्रहण करने के व्यापार से रुक जावे तो वहां पर 'जघन्य से एक समय कहा गया है और उत्कृष्ट जो समय कहा गया है वह भाषा द्रव्य ग्रहण करते समय वह इतने समय तक इसे अपने व्यवहार में ला सकने की अपेक्षा से कहा गया है 'अभासएणं भंते ! हे भदन्त ! अभाषक अभाषक रूप में कितने समय तक बना रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! 'अभासए दुविहे पण्णत्ते' अभाषक दो प्रकार का कहा गया है 'साइएवा अपज्जवसिए साइए वा सेपज्जवसिए' एक सादिक अपर्यवसित और दूसरा सादिक सपर्यवसित इनमें जो 'जे से साइए सपज्जवलिए' अभाषक सादि सपर्यवसित है 'से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं' वह जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रूप से रह सकता है। ભાવ એ છે કે-જે ભાષા દ્રવ્યના ગ્રહણ કરવાના સમયમાંજ મરણ થઈ જાય અથવા બીજા કેઈ કારણથી ભાષા દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવાના વ્યવહારથી રેકાઈ જાય તે ત્યાં જંઘન્યથી એક સમય કહેવામાં આવેલ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી જે સમય કહેવામાં આવેલ છે. તે ભાષા દ્રવ્યગ્રહણ કરવાના સમયે તે એટલા સમય સુધી તેને પિતાના વ્યાપારમાં લાવવાની અપેક્ષાથી કહેવામાં मावत छ. 'अभासए णं भंते' है सावन् ! मलाष २मलाष पाथी કેટલા સમય સુધી બનેલા રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે ४-गौतम । 'अभासए दुविहे पण्णत्ते' मला 2. ४२॥ ४पामा माक्षा छ. 'साइए वा अपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए' मे सा४ि मपर्यवसित ' मन भी सहि सप वसित तमा राजे से साइए सपज्जवसिए' मला• ५४ सा िसपय वसित छ 'से जहणेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं अणंत काल' તે જઘગ્યથી એક અંતર્મુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંત કાળ સુધી અભા
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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