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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४० संसार संसार स० जीवनिरूपणम् १३२९ तत्र-सितं पद्धं यदष्टप्रकारकं ज्ञानावरणीयादि कर्म तद्ध्मातं-भस्मसात्कृतं यैस्ते सिद्धाः कृतसिद्धशिलाधिष्ठानाः हंसादि पदवत् सिद्धपदसिद्धिः निर्दग्धकर्मेन्धनाः मुक्ताः इत्यर्थः । असिद्धाः संसारिणः ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मनिगड़बन्धनबद्धाः अनयोरेव मध्ये सर्वजीवानां समावेशात् उभयत्र च शब्दौ स्वगताऽनेकभेदप्रदर्शकौ इति । सिद्ध जीवस्य भवस्थिरभावात्कायस्थिति दर्शयति-'सिद्धे णंभंते ! सिद्धत्ति कालओ केवच्चिरं होई' सिद्धः खलु भदन्त ! सिद्ध इति सिद्धखरूपेण कियचिरं भवति ? भगवानाह-'गोयमा ! साई अपज्जवसिए' सादिर'सिद्धा य असिद्धा य' सिद्ध' और असिद्ध ऐसे दो जीव के दो भेद हैं-जिन्होंने अपने साथ लगे हुए ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट कर दिया है वे सिद्ध हैं इसकी 'सितम्-बम-कर्म ध्यातं "भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धा' ऐसी व्युत्पत्ति है। ये सिद्ध जीव सिद्ध शिला पर अधिष्ठित रहते हैं । जो संसारी जीव हैं वे असिद्ध जीव हैं क्योंकि ये संसारी जीव ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार की कर्मरूप जंजीरों से जकडे रहते हैं। इन दोनों प्रकार के जीवों में ही समस्त जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। सूत्र में जो 'पांच' पद प्रयुक्त हुए है वे इनके भेद प्रभेदों के संग्राहक हैं । सिद्ध जीवों की भवस्थिति होती नही है अतः इनकी भवस्थिति न कह कर सूत्रकार अब इनकी कायस्थिति का कथन करते हैं इसमें गौतम ने प्रभु से यही बात पूछी है'सिद्धेणं भंते ! सिद्ध त्तिकालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! सिद्धों की कायस्थिति का काल कितना होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते तमामे मा समां मे विवयन यु छ है 'सिद्धा य असिद्धा य સિદ્ધ અને અસિદ્ધ એ પ્રમાણેના જીવના બે ભેદ છે. જેઓએ પિતાની સાથે લાગેલા જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ પ્રકારના કર્મોને નષ્ટ કરેલા છે. તેઓ सिद्ध वाय छ मन तेमानी व्युत्पत्ती "सितम्' बद्धम्-कर्म ध्मातं भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः' मा प्रमाणे छ मा सिद्ध सिद्ध शिला ५२ मिति २ છે. જેઓ સંસારી જીવે છે તેઓ અસિદ્ધ જીવ કહેવાય છે. આ બે પ્રકારના જીમાં જે પાંચ પદ પ્રયુક્ત થયેલા છે તે તેઓના ભેદ પ્રભેદો ને બતા વનારું છે. સિદ્ધ જીવની ભવસ્થિતિ હતી નથી. તેથી તેમની ભાવસ્થિતિ ન કહેતાં સૂત્રકાર હવે તેમની કાયસ્થિતિનું કથન કરે છે. આ સંબંધમાં ગૌતમ स्वामी प्रसुश्रीन से पूछा छ :-'सिद्धेणं भंते । सिद्धत्ति कालओ केवच्चिरं હો હે ભગવન સિદ્ધોની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલું હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छ है 'गोयमा ! साइं अपज्जवसिए' 8 गौतम ! सिद्धानी जी० १६७
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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