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________________ १०२ जीवाभिगमसूत्र त्तरेषु समुद्रपर्यन्तेषु चक्रेण-चतुर्विधसैन्येन वर्तितुं शीलस्य तस्य 'चित्ते' चित्रः चित्रवर्णोपेत आश्चर्यभूतो वा 'रयणकरंडे' रत्नमयः करण्डकः 'वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणिरफटिकपटलमयाच्छादनः 'साए पभाए' स्वकीयया प्रभया 'ते पएसे सव्वओ समंता' तान् समीपवर्तिप्रदेशान् सर्वतःसर्वासु दिक्ष, समन्तात्-सामस्त्येन 'ओमासइ' अवभासयति, एतवदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-'उज्जोवेइ तावेइ पमासेइ' उद्योतयति तापयति प्रभासयति 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा पन्नत्ता' एवमेव ते चित्ररत्नकरण्डकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः । 'वेरुलियपडलपच्चोयडा' वैड्यरत्नपटलमयाच्छादनाः 'साए पभाए' स्वकीयया प्रभया 'ते पएसे' तान्-प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सव्यओ समंता ओभासंति' सर्वतः सर्वामु दिक्षु, समन्तात्-सामस्त्येन सर्वामु विदिक्षु अवभापिटोर चातुरन्त चक्रवती पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण इन चार दिशाओं में एक छत्रराज्यवाले चक्रवती नरेशका 'रयणकरंडे'-रत्नकरण्ड-रत्नमयपिटारा कि जो 'वेरुलियमणिकलिहपडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणि एवं स्फटिकमणि के बने हुए ढक्कनवाला होता है और 'साए पभाए' अपनी प्रभा से 'ते पएसे सव्वओ समता' जैसा वह उन उन समीपवर्ती प्रदेशों को समस्त दिशाओं में सब तरफ से 'ओभासई' प्रकाशित करता रहता हैं। 'उज्जोवेइ तावेई' पभासेइ' उद्योतित करता रहता है एवं चमकता रहता है कान्ति से युक्त करता रहता है 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा पन्नत्ता' इसी तरह से वे चित्र रत्न करण्डक कहे गये हैं। ये चित्र रत्न करण्डक भी वैड्रय रत्न के बने हुए ढक्कनवाले हैं और 'साए पभाए' अपनी प्रभा से 'ते पएसे' उन समीवती प्रदेशों को 'सव्यओ समंता ओभासेंति समस्तदिशाओं में और समस्तविदिशाओं में प्रकाशित करते रहते हैं पापा पति नना 'रयण करंडे' २त्न४२७ २त्नभय पटा॥ २ वेरुलिय मणिफलिहपडलपच्चोयडे' वैडू माण भने २५टिमणिथी मनेता ढाथी aide . मन 'साए पभाए' पातानी प्रमाथी 'ते पएसे सव्वओ समंता' ते ते सभीपमा मासा प्रदेशाने सधणी हिशामामा मधी त२५थी 'ओभासेई' प्राशित ४२ता रहे थे. 'उज्जोवेइत्ता पभासेई' धोतित ४२ता रहे छ भने यमता रहे छे. अर्थात् ४iतिथी युत ४२ता २७ छे. 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा quત્તા એ પ્રકારના એ ચિત્ર રત્ન કરંડકો કહેલા છે. એ ચિત્ર રત્ન કરંડકે ५ वैयरित्नना मनेर छे ढiyामावाला छे. मन 'साए पभाए' पातानी प्रमाथी 'ते पएसे' से नभा २९स प्रशान 'सव्वओ समंता ओमासेति' सधणी शिE- એને અને સઘળી વિદિશાઓને પ્રકાશિત કરતા રહે છે. ઉદ્યોતિત કરતા રહે છે.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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