SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ स. १२७ एकेन्द्रियादीनामल्पबहुत्व निरूपणम् ११५७ पञ्चन्द्रियाः सर्वतः स्तोकाः एकप्रतरेऽगुलाऽसंख्येयभागमात्राणि यावन्ति खण्डानि तावत्प्रमाणत्वात् इति । 'चउरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया' अपर्यातक चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियेभ्यो विशेषाधिकाः प्रभूततराऽशुलाऽसंख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् । तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया' त्रीन्द्रिया अपर्याप्तकाश्चतुरिन्द्रियेभ्यो विशेषाधिकाः उक्तयुक्तेः इति । 'बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया' अधिकेन्द्रियेभ्यो न्यूनाः इति हेतोः द्वीन्द्रिया अपर्याप्तका स्त्रीन्द्रियेभ्योविशेषाधिकाः प्रभूततमप्रतराङ्गुलासंख्येयभागखण्डप्रमाणत्वात् । 'एगिदिय दिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया' हे भदन्त ! अपर्याप्तक एकेन्द्रियादिक जीवों के बीच में कौन जीव किनकी अपेक्षा अल्प हैं ? कौन जीव किनकी अपेक्षा बहुत हैं ? कौन जीव किनके बराबर है 'एवं कौन जीव किनसे विशेषाधिक हैं ? इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है-हे गौतम ! सबसे कम पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं क्योंकि एक प्रतर में जितने अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड हैं उनके बराबर इनका प्रमाण है इनकी अपेक्षा चौइन्द्रिय अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं-क्योंकि एक प्रतर में जितने प्रभूत अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड है उनके बराबर इनके प्रमाण हैं 'तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेलाहिया बेइंदिया अपज्जत्तगा दिलेलाहिया, एगिदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा' अपर्याप्तक तेइन्द्रिय जीवों का प्रमाण अप. प्तिक चौइन्द्रिय जीवों की अपेक्षा विशेषाधिक है क्योंकि एक प्रतर में जितने प्रभूततर अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड विसेसाहिया' मावन् ! अपर्यास येन्द्रियाल मा ४या ना કરતાં અલ્પ છે? ક્યા છે ક્યા જીવ કરતાં વધારે છે? કયા જ કયા જીવની ખરેખર છે? અને કયા જીવો ક્યા જીવાથી વિશેષાધિક છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે-હે ગૌતમ! સૌથી ઓછા પચેન્દ્રિય અપર્યાપ્તક જીવ છે. કેમકે-એક પ્રતરમાં જેટલા આગળના અસંખ્યાત ભાગ પ્રમાણુના ખડે છે. તેની ખબર તેનું પ્રમાણ છે. તેના કરતાં ચાર ઈદ્રિય વાળા અપર્યાપ્તક જી વિશેષાધિક છે. કેમકે એક પ્રતરમાં જેટલા પ્રભૂત આગળના मध्यातमा मा प्रभा'छ तेनी म२ तेनु प्रभा छे. 'तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, पगिदिया अपज्ज., तगा अणंतगुणा' मर्यात र दियवा वानु प्रमाण अपर्यास यार ઈંદ્રિયવાળા જીવેના કરતાં વિશેષાધિક છે. કેમકે એક પ્રતરમાં જેટલા પ્રભૂ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy