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________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.४ सू.१२६ पञ्चविधसंसारसमापन्नकजीवनि० ११४३ नीयमेवेति ध्वनिः । एवं सव्वेसिं' एवं सर्वेषामपर्याप्तक द्वीन्द्रियादि पञ्चन्द्रियान्तानां जघन्योत्कर्षाभ्यां जीवनकालोऽन्तर्मुहूर्तकमेवेति । 'पज्जत्तग एगिदियाणं जाव पंचिंदियाणं पुच्छा' पर्याप्तकैकेन्द्रियाणां यावत्पञ्चेन्द्रियाणां पृच्छा, पर्याप्तकैकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियाणां स्थितिकाला 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई अंनोमुहुत्तोणाई' जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहतोनानि (अपर्याप्तकालेनाऽन्तर्मुहूर्तहीनत्वात्, इति । ‘एवं उक्कोसिया वि ठिइ अंतोमुहुत्तोणा सव्वेसि पज्जत्ताणं कायव्वा' एवं पर्याप्तकैकेन्द्रियजीवानामिव सर्वेषां द्वि-त्रि-चतु:जघन्य स्थिति के अन्तर्मुहूर्त से कुछ भिन्न हैं । 'एवं सव्वेसि' इतनी ही स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों की है 'पज्जत्तग एगिदियाणं जाव पंचिंदियाणं पुच्छा' हे भदन्त ! पर्याप्तक एकेन्द्रिय से लेकर पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल की है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहत्तोणाई' हे गौतम ! पर्याप्तकं एकेन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति तो एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त कम २२ हजार वर्षों की है-यहां जो यह हीनता पतलाई गई है वह अपर्याप्त काल की एक अन्तर्मुहूर्त की स्थिति कालको कम करके बतलाई गई है 'एवं उक्कोसिया वि ठिति अंतोमुहुत्तोणा सव्वेसिं पज्जत्ताणं कायव्वा' इसी तरह दो इन्द्रिय vधन्य स्थितिमा मतभुत थी मिन्न छ. 'एवं सन्वेसिं' આજ પ્રમાણેની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટની અપેક્ષાથી બેઈન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય, ચૌઈन्द्रिय भने पयन्द्रिय अपर्याप्त वोनी स्थिति छ, 'पज्जत्तग एगिदियाणं जाव पंचिंदियाणं पुच्छा' है सावन् ! पयाँ सन्द्रियथी धन पर्याप्त પંચેન્દ્રિય વાળા જીવની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री छ ?-जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहरसाई ગૌતમ ! પર્યાપ્ત એકેન્દ્રિયની જઘન્ય સ્થિતિ તે એક અંતમુહૂર્તની છે. અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ એક અંતમુહૂર્ત કમ ૨૨ બાવીસ હજાર વર્ષોની છે. અહીયાં જે આ હીનતા બતાવવામાં આવેલ છે, તે અપર્યાપ્તક કાળની એક અન્તર્મુહૂત કાળની સ્થિતિ કાળને ઓછા કરીને બતાવવામાં આવેલ છે. "एवं उक्कोसिया वि ठिई अंतोमुहुत्तोणा सव्वेसिं पज्जत्ताणं कायव्वा' मेर
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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