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________________ ११२८ जीवाभिगमसूत्रे ओत्रमाई' तिर्यग्योनिकानां जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः 'एवं मणुस्साणं वि' एवं मनुष्याणामपि । 'देवाणं जहा नेरइयाणं' देव नैरयिकयोः जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षतः त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । 'देवनेरइयाणं जा चेत्र ठिई सच्चेव संचिदृणा' देवानां नैरयिकाणां यावतीस्थिति भवस्य तावत्येव कायस्य १०००० जघन्येन ३३ सागरोपमाणि उत्कर्षतः । 'तिरिक्खजोणियस्स' तिर्यग्योनिकस्य कार्यस्थिति 'जहन्नेणं अंतो मुहु' मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की कही गई है देवों की स्थिति जघन्य से दश हजार वर्ष की कही गई हैं और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम की कही गई हैं एवं मनुष्यों की जघन्यस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम को कही गई है यह जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति तिर्यञ्च और मनुष्यों की जो कही गई हैं वह भोगभूमिया तिर्यञ्च और मनुष्यों की अपेक्षा लेकर कही गई है यही बात - सूत्रकार ने इन आगे के सूत्रों द्वारा प्रकट की है 'तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओचमाई, एवं मणुस्साण वि, देवाणं जहा णेरड्याणं' । ' देव नेरइयाणं जा चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा' देव और नैरयिकों की जो भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा-काय स्थिति है क्योंकि नैरयिक जीवों का सीधा नैरयिकों में उत्पाद नहीं होता है क्योंकि 'नो नेरइए नेरइएस उववज्जइ' ऐसा सिद्धान्त कथन है इसी तरह देव चव પ્રમાણે તિર્યંચાની જઘન્ય સ્થિતિ એક અંતમુહૂત'ની કહેલ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ પત્યેાપમની કહેવામાં .આવેલ છે. દેવાની જઘન્ય સ્થિતિ દસ હજાર વર્ષીની કહેલ છે અને ઉત્કૃષ્ટ થી ૩૩ તેત્રીસ સાગરાપમની કહેવામાં આવેલ છે. અને મનુષ્ચાની જઘન્ય સ્થિતિ એક અ ંતર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ પત્યેાપમની કહેવામાં આવેલ છે. આ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તિર્યંચ અને મનુષ્યાની જે કહેવામાં આવેલ છે તે ભેગભૂમિ ના તિય ચ અને મનુષ્યની અપેક્ષા લઈને કહેવામાં આવેલ છે. એજ વાત આ આગળના સૂત્રપાઠ દ્વારા अगर रवामां आवे छे. 'तिरिक्खजोणियाणं महणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ माई एवं मणुस्साण वि देवाणं, जहा णेरइयाणं देवणेरइयाणं जा चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठण:' देव भने નરયિકાની જે જીવ સ્થિતિ છે, તેજ તેની સંચિટ્ટણા કાયસ્થિતિ છે કેમ કેनैरथिङ वो नो उत्पात सीधेो नैरयि अभां थतो नथी, भ 'नो नेरइए नेरइएसु उववज्जइ' भ्मा अमाशे सिद्धान्तनु उथन छे, मेन प्रमाणे देव थवीने
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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