SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२६ जीवाभिगमसून एवं चेव' शेष सनत्कुमारादि कल्पेवपि जीवा उत्पन्नपूर्वा अनेकशः । 'नवरं नो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेजगा' नवां नैव खलु देवीतया समुत्पन्नपूर्वाः, सनत्कुमारादिषु देवीनामुत्पादाऽभावात् एवं यावद्गवेयककल्पेषु वक्तव्यम् । 'अणुत्तरोववाईएसु वि एवं' अनुत्तरोपपातिकेप्वपि कल्पेषु सौधर्मकल्पवत् वक्तव्यता । 'नो चेव णं देवताए देवित्ताए' नैव खलु देवतया देवितया वा अनुत्तरकल्पेषु अनन्तकृत्वो देवत्वस्य- प्रतिपेधः विजय-जयन्त-वैजयन्ताऽपराजितेषु चतुर्यु उत्कर्पतोऽपि वारद्वयम् सर्वार्थसिद्धे महाविमाने एकवारम् एव गमनसमस्त जीव और समस्त सत्त्व अनेक वार अंथवा अनन्तवार पृथिवी कायिक रूप से, देवरूप देवीरूप से अशन शयन यावत् भाण्डोपकरण रूप से उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में भी वे इसी प्रकार से अनेक-वार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हो चुके हैं 'णवरं नो चेवणं देवित्ताए जीव गेवेज्जगा, अणुत्तरोववातिएसु वि एवं, णो चेवणं देवत्ताए देवि त्ताए' परन्तु सनत्कुमार से लेकर यावत् ग्रैवेयक तक के देवों में ये समस्त प्राण, समस्त भूत, समस्त जीव और समस्त सत्त्व देवीरूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि यहां पर इनका उत्पाद नहीं होता है विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित के देवों में ये समस्त प्राणादिकं देवीरूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं और न अनंतवार देवरूप से उत्पन्न हुए हैं क्योंकि यहां पर जीव दो बार से ज्यादा उत्पन्न नहीं होता है इसी तरह से सर्वार्थसिद्ध विमान में भी ये प्राणादिक 'देवी रूप से उत्पन्न नहीं हुए हैं और न अनेकवार देवरूप से उत्पन्न • પ્રાણે, સઘળા ભૂતે સઘળા છે, અને સઘળા સ, અનેકવાર અથવા અનંતવાર પૃથ્વી કાયિક પણાથી દેવ રૂપથી, દેવી રૂપથી અશન, શયન, થાવત્ ભાંડેપકરણ રૂપથી ઉત્પન્ન થઈ ચૂકેલ છે. બાકીના કમાં પણ તેઓ मा प्रभारी मने पा२ मा मत पा सपन्न थ यूडेसा छे. 'णवरं णो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेनगा, अणुत्तरोववातिएसु वि एवं, णो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए' ५२तु सनमार थी सन यावत् अवय सुधीना हेवामा એ સઘળા પ્રાણ, સદણ ભૂત, સઘળા જીવ, અને સઘળા સત્વે દેવી પણા થી ઉત્પન્ન થયા નથી કેમ કેઅહીયાં તેને ઉત્પાત થતો નથી. વિજય, વિજયન્ત, જયન્ત અને અપરાજીત ના દેવામાં એ સઘળા પ્રાણ, ભૂત વિગેરે દેવી - પણ થી ઉત્પન્ન થતા નથી. અને અનંત વાર દેવ પણ થી પણ ઉત્પન થતા નથી, કેમ કે અહીયાં જ બે વાર થી વધારે વાર ઉત્પન્ન થતા નથી એજ પ્રમાણે સર્વાર્થ સિદ્ધ વિમાન માં પણ પ્રાણદિક દેવી પણ થી
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy