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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू. १२१ देवविमानपृथिव्या वाहल्यादिकम् १०९३ एवमेवाऽनुत्तरोपपातिकदेवानाम्, एवमेव सौधर्मेशानादारभ्याऽनुत्तरोपपातिकदेवानामाहारतया ये पुद्गला इष्टाः० त एव परिणमंति इति विवेकः ।। ___ अथ लेश्याविचार:-'सोहम्मीसाण देवाणं कइलेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा! एगा तेउलेस्सा पनत्ता' सौधर्मेशानदेवानां कतिलेश्याः प्रज्ञप्ताः ? हे गौतम ! एका तेजोलेश्या प्रज्ञप्ता। 'सणंकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा' सनत्कुमारमाहेन्द्रयोरेका पद्मलेश्या प्रज्ञप्ता । 'एवं वंभलोगे वि पम्हा' एवं ब्रह्मलोकेऽपि एकापद्मलेश्या । 'सेसेसु एका सुकलेस्सा' शेषेषु लान्तकतो ग्रैवेयकपर्यन्तेषु एकैव शुक्ललेश्या भवति । 'अनुत्तरोववाइयाणं एका परमसुक्कलेस्सा' अनुत्तरोपपातिक देवानामेका परमशुक्ललेश्या ज्ञेया । तदुक्तम् "किण्हानीलाकाउ तेउलेस्सा य भवणवंतरिया । जोइस सोहम्मीसाण तेउलेस्सा मुणेयच्या ॥१॥ कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव वंभलोए य । एएसु पम्हलेस्सा तेण परं सुक्कलेस्सा य ॥२॥ वाले होते हैं वे ही सौधर्म से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों के आहार रूप से परिणमते हैं ऐसा जान लेना चाहिये 'सोहम्मीसाण देवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! सौधर्म और ईशान देवों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता' हे गौतम । सौधर्म और ईशान देवों के एक तेजो लेश्या होती है 'सणंकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा' सनत्कुमार और माहेन्द्र देवों के पद्म लेश्या होती है "एवं बंभलोगे वि पम्हा सेसेसु एक्का सुकलेस्सा, अणुत्तरोववातियाणं एका परमसुक्कलेस्सा' ब्रह्मलोक में भी एक पद्म लेश्या ही होती है तथा लान्तक से लेकर अवेयक तक के देवों में एक शुक्ल लेश्या होती है । तदुक्तम्मनुत्तरोपपति होना माहा२ ३थे परिणमे छ तभ समन. 'सोहम्मीसाण देवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओं के भगवन् सौधर्म मन शान वाने टसी श्यामा हाय छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ ?-'गोयमा ! एगा तेउलेक्सा पण्णत्ता' हे गौतम | सौधर्म सने शान हेवाने मे तनसश्या डाय छे. 'सणकुमारमाहिंदेसु एगा पम्ह लेस्सा' सनभा२ अने भाडेन्द्र हवाने में पालेश्या ।हाय छे. 'एवं बंभलोगे वि पम्हा सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा अणुत्तरोववाइयाणं एका परमसुक्कलेस्सा' प्रहरीमा पर ये पस લેશ્યા જ હોય છે. તથા લાન્તક દેવકથી લઈને રૈવેયક સુધીના દેવામાં એક શુકલ લેશ્યા જ હોય છે. અને અનુત્તરપપાતિક દેને એક પરમશુકલ લેશ્યા જ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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