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________________ १०९२ जीदामिगमसूत्र राणि न मनुष्यवद्विनश्वराणि इति । "एवं जाव अणुत्तरोववाइया' एवं यावदनुत्तरोपपातिकानामपि ज्ञेयानि । सम्प्रति उच्छ्वास प्रतिपादनम्-'सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसया पोग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति ? गोयमा ! जे पोग्गला इटा कंता जाव एएसि उस्सासत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववाइया, एवं आहारत्ताएवि जाव अणुत्तरोघवाइया' सौधर्म शानयोः देवानां कीदृशाः पुद्गलाः उच्छ्वासतया परिणमन्ति, भगवानाह-गौतम ! ये पुद्गलाः इष्टाः कान्ताः प्रियतरा मनोज्ञा मन आमतरास्ते पुद्गलास्तेपां देवानामुच्छवासनया परिणमन्ति, कहे गये हैं । 'एवं जाव अणुत्तरोववाइया' इसी तरह से सनत्कुमार से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों तक के भी शरीर स्थिर मृदुस्पर्श वाले स्थिर स्निग्ध स्पर्श वाले एवं स्थिर कोमल स्पर्श वाले कहे गये हैं। मनुष्य की तरह विनश्वर स्पर्शवाले नहीं कहे गये हैं। 'सोहम्मीसाणदेवाण केरिसया पुग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति' हे भदन्त ! सौधर्म और ईशान देवों के कैसे पुद्गल उच्छ्वासरूप में परिणमते हैं ? गोयमा! जे पोग्गला इट्टा कंता, जाव ते तेसिं उस्लासत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववातिया' हे गौतम ! जो पुद्गल इष्ट कान्त, यावत् प्रियतर मनोज्ञ और मन आम होते हैं वे पुद्गल ही इन देवों के उच्छ्वास रूप से परिणमते हैं । इसी तरह से सनत्कुमार से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों के भी ऐसे ही पुद्गल उनके उच्छ्वास रूप से परिणमते है ऐसा जानना चाहिये 'एवं आहारत्ताए वि जाव अणुत्तरोववातिया' इसी तरह से जो पुद्गल इष्ट कान्त, आदि विशेषणों पशा मन स्थिर भग २५शवाण उपाभा मावा छे. 'एवं जाव अणुत्तरोववाइया' मे प्रमाणे सनछुभारथी ने मनुत्त५५ातिना शरीर સ્થિર મૃદુ સ્પશ વાળા કહેવામાં આવેલ છે. મનુષ્યની જેમ વિનશ્વર સ્પર્શ atm डस नथी. 'सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसया पुग्गला उस्सासत्ताए परिण ત્તિ” હે ભગવન્! સૌધર્મ અને ઈશાન દેવોના કેવા પગલે ઉચ્છવાસ ३५थी परिणमे छ ? 'गोयमा! जे पोग्गला इट्टा, कंता, जाव ते तेसि उस्सो. सत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववाइया' गौतम ! २ गोट, आन्त, યાવત પ્રિયતર મને અને મન આમ હોય છે. એ પુદ્ગલે જ એ દેવોના ઉચ્છવાસ રૂપે પરિણમે છે. એ જ પ્રમાણે સનસ્કુમારથી લઈને અનુત્તરપપાતિક દેવના પણ એવાજ પુદ્ગલે તેમના ઉચ્છવાસ રૂપથી પરિણમે છે. તેમ સમ . 'एवं आहारत्ताए वि जाव अणुसरोववाझ्या' से प्रभारी २ पुगो ઈષ્ટ, કાન્ત, વિગેરે વિશેષણે વાળા હોય છે. તે જ પુદ્ગલે સૌધર્મથી લઈને
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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