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________________ जीवाभिगमसूत्र १०४० मियाए परिसाए एगा देवसाहस्सी, वाहिरियाए दो देव साहस्सीओ पण्णत्ता' एतस्याऽभ्यन्तर-मध्य-वाह्यपर्पत्सु क्रमशः पञ्चदेवशतानि एकं देवसहस्र, द्वे देवसहस्र देवानां वासः 'ठिई अमितरियाए अट्ठारससागरोवमाई सत्त पलिओवमाई, एवं मज्झिमियाए अट्ठारस सागरोवमाइं छप्पलिओवमाई-चाहिरियाए अट्ठा० पंचपलिओवमाई अट्ठोसो चेव' स्थितिथाऽर्धाष्टादशसागरोपम सप्त पल्योपमानि आभ्यन्त रिकायाम् माध्यमिकायामर्धाप्टा० पद पल्योपमानि; बाह्यायान्तु-अर्धाष्टादश सागरोपम पञ्चपल्योपमानि, अर्थः स एवाऽन्यद्ब्रह्मकल्पवत् इति । 'आणय पायणस्स वि पुच्छा० जाय तो परिसाओ' आनत प्राणतस्यापि पृच्छा यावत्तिस्रः पर्पदः आनत-प्राणतो द्वौ कल्पौ सहस्रार कल्पतो वहुदूरं पूर्ववद्वर्णनीयौ उभयत्रापि-अशोक-सप्तपर्णचम्पकाऽऽम्रावतंसकवतंसक नामका विमानावतंसक है यहां पर पूर्व की तरह तीन परिषदाएं हैं आभ्यन्तर परिषदा में पांच सौ देव हैं मध्यपरिषदा में एक एक हजार देव हैं और वायपरिषदा में दो हजार देव हैं आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति १७॥ सागरोपम की और सात पल्योपम की है मध्यपरिषदा के देवों की स्थिति १८ सागरोपम की और ६ पल्योपम की है वाहपरिषदा के देवों की स्थिति १७॥ सागरोपम की और ५ पल्योपम की है अवशिष्ट कथन पूर्व के जैसा है 'कहिणं भंते ! आणय पोणय नामे दुवे कप्पा पण्णत्ता' हे भदन्त ! आनत प्राणत नामके दो कल्प कहां पर हैं और 'कहि णं भंते ! आणय पाणयगा देवा परिवसंति' कहां पर आनत प्राणत देव रहते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सहस्सार कप्पस्स उप्पि सपक्खं सपडिदिसिं કથન પ્રમાણે ત્રણ પરિષદાઓ છે. આભ્યન્તર પરિષદામાં ૫૦૦ પાંચસે દે છે. મધ્યપરિષદામાં ૧૦૦૦ એક હજાર દે છે. અને બાહ્ય પરિષદામાં એક હજાર દે છે. આભ્યન્તર પરિષદાના દેવની સ્થિતિ ૧છા સાડા સત્તર સાગરોપમની અને ૭ સાત પલ્યોપમની છે. મધ્ય પરિષદના દેવાની સ્થિતિ ૧૮ અઢાર સાગરોપમ અને ૬ ૭ ૫૫મની છે. બાહ્ય પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ ૧છા સાડા સત્તર સાગરેપમ અને ૫ પાંચ પપમની છે. આ શિવાયનું કથન પહેલાના કથન પ્રમાણે છે. ___'कहिणं भंते ! आणयपाणयणामे दुवे कप्पे पण्णत्ता' हे सगवन् । मानत प्राणत नामना मे ४८५ ४यां मावदा छ ? तथा 'कहिणं भते ! आणयपाणयगा देवा परिवसंति' मानतात हे। ४यां २ छ ? २॥ प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छ -'गोयमा! सहस्सारकप्पस्स उपि सपक्खं सपडिदिसि वहूई जोयणाई
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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