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________________ प्रमेयद्योतिका टीका न.३ उ.३ रु.५१ द्वीपसमुनिकपणम् गच्छन्तः२ तथाहि-जम्बूद्वीप एकयोजनलक्षः लव गसमुद्रो द्वे योजनलक्षे धातकी. खण्डश्च त्रीणि योजनलक्षाणि, इत्यादि, 'ओमासमाणवीचिया' यवभासमाना वीचयः वल्लोला येषां ते अवभासमानबीचयः, इदञ्च विशेपणं समुद्राणां स्वामा. विकमेव, द्वीपानामपि इदं विशेषणं यथाकथञ्चित् संभवति, द्वीपेष्वपि हुदनदनदी तडागादिषु कल्लोलसंमवादिति । तथा- ते द्वीपसा द्राः कीदृशाः सन्तीति तान् वर्णयति-'बहु' इत्यादि, 'बहुउप्पलपउम-कुमुदनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीय महापोंडरीय सयपत्तसहस्सपत्तपप्फुलकेसरोवचिया' बहूत्पलपद्मकुमुदनलिननुभगसौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सहस्रपत्र प्रफुल्लकेपरोपचिताः, तत्रोत्पलं माणा२ ओभालमाणबीचोया' हल सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है। अर्थात् जम्बूद्वीपका जितना विस्तार है उसकी अपेक्षा लवणसमुद्रका दूना विस्तार है। लक्षणसमुद्र के विस्तार की अपेक्षा धालकी खण्डका दूना विस्तार है । इत्यादि 'ओमासमाणवीचिया' दृश्यमान कल्लोलो. तरंगो वाले यह विशेषण समुद्रों का तो है ही परन्तु द्वीपों का भी विशेषण हो सकता है क्योंकि उनमें भो हद, नदी तडाग आदि है। और उन में कल्लोलो का होना स्वाभाविक है इश्री कारण ये छीप और समुद्र अवभालझान वीची-तार गो बाले काहे गये है अब उन द्वीप समुद्रों का वर्णन करते है-'बहुउप्पलपउन्मकुमुदलिणसुभगसोगं. धियपोंडरीयमहापोडरीयलयपत्तसहस्तपत्तपप्फुल्लदेसरोवचिया' प्रफु. ल्लित, एवं केशर खे युक्त ऐले अनेको उत्सलो से कमलों से, पत्रों से सूर्यविकाशी कमलों से चन्द्रविक्षाशी कुसुदों से कुछ२ लालबर्णवाले समाणवीचिया' ।। सूत्र५४ वा समतामi मा छे. अर्थात् '. દ્વિીપને જેટલે વિસ્તાર છે તેની અપેક્ષાએ લવણ સમુદ્રને બમણે વિસ્તાર છે લવણ સમુદ્રના વિસ્તારની અપેક્ષાએ ધાતકી ખંડનો બમણ વિસ્તાર છે. छत्याहि 'ओभासमाणवीचिया' मामा माता तर गावात मा विशेष સમુદ્રોનું તો છે જ પરંતુ દ્વીપોનું પણ આ વિશેષણ થઈ શકે છે. કેમકે તેમાં પશુ હદ, નદી, તડાગ, (તળાવ) વિગેરે છે જે તથા તેમાં તર ગેનું હોવું સ્વાભાવિક છે. એ જ કારણથી આ દ્વીપ અને સમુદ્ર અવભાસમાન વિચિ તરંગવાળા કહેવામાં આવેલ છે. हवे मे द्वीप समुद्रातुं न ४२माया मावे छे. 'बहुउप्पल पउमकुमुद णलिण सुभग सोगाधिय पोंडरीय महापाडरीय संयतपत्तसहस्सपचपप्फुल्लकेसरो वचिया' मीसा भने सरथी युत सेवा भने त्यसोथी भगायी, पत्राथा સૂર્ય વિકાશી કમળાથી, રાવિકાશી કુમુદોથી કંઈક કંઈક લાલ વર્ણવાળા
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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