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________________ ७१४ जीवामिगम प्रज्ञापनायाः प्रथमे पदे कथितं यावत्पश्चमिरुत्तरकुरुभिरिति-अकर्मभूमक मनष्याणां वर्णनं कृतं तदनुसारेणैवान ज्ञातव्यम् । ____ अकर्मभूमकमनुष्यान् निरूप्य कर्मभूमकान्निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह-'से किं त' इत्यादि, 'से किं तं कम्मभूमगा' अथ के ते कर्मभूमकाः, कर्मभूमका मणुष्याः कियन्तो भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'कम्मभूमगा सणुस्सा पण्णरसविहा पन्नत्ता' कर्मभूमकाः कर्मभूमिषु समुत्पाना मनुष्याः पञ्चदशविधा:-'पंचदशपका. रकाः यज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा 'पंचहि भरहेहि पञ्चभिर्भरतः 'पंचहि एरवरहिं' पञ्चभिरैरवतैः 'पंचहि महाविदेहेहि' पञ्चभिर्महाविदेहै, तथा च पश्च. पांच हैरण्यवत पाँच हरिवर्प क्षेत्र के मनुष्य पांच रम्यक क्षेत्र के मनुप्य और पांच देवकुरु के मनुष्य और पांच उत्तरकुरु के मनुष्य इस प्रकार से अढाई द्वीप में ये तीस ओगभूमियां-अकर्मभूमियां है। इन अकर्मभूमियों में जो उत्पन्न हुए मनुष्य है वे अकर्मभूमक मनुष्य कह लाते हैं। और इन्हें इली खे तीस प्रकार के कहा गया है 'से तं अक म्मभूमगा' इस प्रकार से अकर्मभूभकों के सम्बन्ध में यह कथन किया गया है इनका विस्तृत क्षथन प्रज्ञापना पद में प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में हुभा है अतः वहीं ले यह विषय जिज्ञाप्तुओं को जान लेनाचाहिये। ___ 'से किं तं कम्मभूमगा' हे भदन्त ! कर्मभूमक मनुष्य कितने प्रकार के है इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी को कहते है-हे गौतम! कर्मभू. मक मनुष्य पण्णरतविहा पण्णत्ता' पन्द्रह प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जैसे-'पंचहि भरहेहिं पंचहिं एरवएहिं पंचहि महाविदेहेहि पांच भरत कुरुहि" पांय प्रा२ना २७यक्त क्षेत्रा मनुष्य पांय ना हरिष क्षेत्रना મનુષ્ય પાંચ પ્રકારના રમ્યકક્ષેત્રના મનુષ્ય અને પાંચ પ્રકારના દેવકુરૂના મનુષ્યો અને પાંચ ઉત્તરકુરૂના મનુષ્ય આ રીતે અઢાઈ દ્વીપમાં આ ત્રીસ ભેગભૂમિ અકર્મભૂમિ છે. આ અકર્મભૂમિમાં ઉત્પન્ન થયેલા જે મનુષ્ય છે, તેઓ અકર્મભૂમક મનુષ્યો કહેવાય છે. અને તે બધા મળીને ત્રીસ પ્રકારના ४पामा भावे छे. 'से तं अकम्मभूमगा' ! शत मम भूभियाना समां કથન કરવામાં આવેલ છે આનું સવિસ્તર કથન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રજ્ઞાપના પદમાં કરવામાં આવેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે બધુ ત્યાંથી જાણી લેવું ____ 'से कि त कम्मभूमगा' भगवन् भभूभिना मनुष्या सामाना ह्या છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! કર્મા भूमिना मनुष्य। 'पन्नरसविहा पण्णवा' ५न्नर ४१२॥ वामां आवेट छ. 'त जहा' 20 प्रभाये गा रेभ'पंचहि भरहेहि, पंचहि एरवएहि, पंचहि
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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