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________________ ६३२ -- जीवाभिगम कृतशिरस्कः चौरशोधाधिकारी । 'साडवियाइ वा' माण्डविक इति, छिन्नभिन्नजनाश्रयाधिपतिः 'कोड'विया वा' कौटुम्बिक इति वा, कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बमभुः 'इवाइ वा' इभ्य इति वा' इवो हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमर्द्दनीति इभ्यो धनिकः 'सेडोइवा' श्रेष्ठीनि वा कम्पाध्यासि वसौवर्णपट्टालकृतशिराः नगरप्रधानव्यवहर्त्तेति भावः 'सेणावईति चा' सेनापतिरिति वा, सेनानायक', 'सत्यवाइवा' सार्थवाह इति वा, यो हि गणिमादि क्रयागकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सहचारिणां मार्गे महायको भाति स सार्थवाहः, भगवानाह - 'णो इण्डे समट्टे' नायमर्थः समर्थ', 'ववगयइडी सक्काराणं ते मणुपगणा - पण्णा समणाउसो !' व्यपगतऋद्धिसत्काराः खलु व्यपगताऋद्धिविभवैश्वर्य सत्कारच येभ्यस्ते यह युवराज है यह इश्वर - भोगिक आदि है यह तलचर हैं-संतुष्ट हुए नरपति द्वारा दिया गया जिसके मस्तक पर सौवर्ण का पट्ट अलङ्कृत हो रहा है ऐसा थानेदार जो नगरादि में चोरों की छानवीन किया करता है उन्हें दण्डित करता है यह मॉडविक छिन्न भिन्न वसति का स्वामी है, यह कौटुम्बिक है कतिपय कुटुम्ब का स्वामी है, यह इभ्य हस्ति प्रमाण द्रव्य का मालिक है, यह श्रेष्ठि-लक्षाधिपति है यह सेनापति है, यह सार्थवाद - गणिमादिक ऋषाणक को वेचने के लिये देशान्तर जाते हुए जो अपने सहचारियों को मार्ग में सहायक होता है ऐसा वह संघाधिपति हैं, 'क्या ऐस व्यवहार होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'णो इट्टे समट्टे' हे गौतम ! वहाँ पर ऐसा व्यवहार नहीं होता है क्योंकि- 'ववगयइढी सकारा णं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्प्रन् ! ये सब एकोरुरु द्वीप वासी मनुष्य ऋद्धि, આપેલ સેાનાના પટ્ટ જેના માથા પર શેલે છે, તેવા થાણુદાર (મામલતદાર) જે નગર વિગેરેમાં ચારાની શેાધ ખેળ કરે છે, તેમના દડ કરે છે તેને તલવર કહે છે આ માર્ડ'મિક છિન્ન ભિન્ન વસતિના સ્વામી છે. આ ઈલ્ય હાથીના જેટલા પ્રમાણુ વાળા દ્રવ્યના માલીક છે, આ શેઠ અર્થાત લક્ષાધિપતિ છે આ સેનાપતિ છે. આ સાથ વાહ છે, ણિમ પરિમ, વિગેરે વેચવા ચૈાગ્ય પદાર્થને વેચવા દેશાન્તરમાં જનારાઓને તેમની સાથે જેઆ સહચારી–સાથે રહેવાવાળાઓને માર્ગમાં સહાયક હોય છે. એવા તે સઘના અધિપતિ છે. શુ' ? એવા વ્યવઙાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे! 'णो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! त्यां भागण सेवे। व्यवहार थतेो नथी. भिडे 'ववगय इड्ढी सक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समगाउसो' हे श्रमायु आयुष्मन् भागधा थे। द्वीयभां रहेवावाणा भन्नुष्यो
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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