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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४१ एगागारा पन्नचा' संमूच्छिममनुष्या एकाकारा:- एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति संच्छिममनुष्याणां कुत्रोत्पत्ति भवतीति जिज्ञासु गौतमः पृच्छति-'कहि णं' इत्यादि, 'कहिणं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! संमच्छिममनुष्याः संमूर्छन्ति-समुत्पधन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतोमणुलखेत्ते' अन्तर्मनुष्यक्षेत्रो मनुष्यक्षेत्राभ्यन्तरे एव समुत्पद्यन्ते मनुष्याणामेव उच्चारमस्रवणाद्यशुचिस्थानेषु अन्त महत्तकालायुष एव कालं कुर्वन्ति 'जह पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिममणुम्सा' यथा प्रज्ञापनायां कथितं यावत ते एते संमृच्छिसमनुष्या इति, संमृच्छिममनुष्याणां विस्तरतो निरूपण प्रज्ञापनायाः प्रथम प्रज्ञापना पदोक्तानुसारेणेव ज्ञातव्यम्, __अत्र 'जा' यावर शब्दग्राह्याः प्रज्ञापना सूत्रच प्रथमपदोक्तास्तदालापकाः यथा-'पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्म एगागारा पन्नत्ता' हे गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों के सेद नहीं होते हैंक्योंकि संमुच्छिम मनुष्य एक स्वरूप वाले कहे गये हैं। 'कहिणं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति' हे भदन्त ! इन संभूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति कहां पर होती है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते' हे गौतम ! ये संसूच्छिम मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों के ही सल सूत्रादिक रूप अशुचि वस्तुओं में ही ये उत्पन्न होते हैं और इनकी आयु केवल एक अन्तर्मुहूर्त की होती है 'जहा पण्णक्षणाए जाव ले तमुच्छिममनुस्सा संमुच्छिम मनुष्यों के सम्बन्ध में विस्तार से कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रशम पद में किया गया है अतः उसी के अनुसार यहां पर भी इनके सम्बन्ध में कथन समझ लेना चाहिये. यहां पर 'यावत्' शब्द से ग्रात्य प्रज्ञापना मूत्र उत्तरमा प्रसुश्री छे संमुच्छिस मणुस्सा एगागारा पण्णत्ता' गौतम! સંમૂર્ણિમ મનુષ્યના કેઈપણ ભેદ હોતા નથી. કેમકે સમૂર્ણિમ મનુષ્યો એકજ ३१३५वाणा वातुं छे. शथी श्रीगोतमत्वामी पूछे छे ४ 'कहिणं भते! समुच्छिम मणस्ता समच्छिति' 3 मावन मास भूरिभ मनुष्यानि अत्पत्ती ४या याय छे ? 24। प्रश्न उत्तम प्रभुश्री ४९ छ, 'गोयमा ! जतो मणुस्सखेत्ते' હે ગૌતમ ! આ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની અંદર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા મનુષ્યનાજ મલ મૂત્રાદિ રૂપ અશુદ્ધ વરતુઓમાંજ તેઓ ઉત્પન્ન થાય छे. मन तमानपारायण मतभुइन नुन हाय छे. 'जहा पण्णवणाए जाव से त संमुच्छिमणुस्सा' सभरिछम मनुष्याना समयमा प्रज्ञायनासूत्रमा વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તેથી તે કથન પ્રમાણે અહિયાં પણ તએના સંબંધમાં ન સમજી લેવું જોઈએ, “થાવત્' પદથી ગ્રહણ કરવામાં
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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