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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ॥ इति गाया वक्तव्या। अय चरमसूत्रोक्त सप्तमनरकथिवीमसङ्गात् तन पे गच्छन्ति तान् प्रतिपादयति-'एत्य किर' इत्यादि, 'एत्य' अत्राधा सप्तमरकपृथिव्याम् 'किर' किलेति पदम् आप्तश्च मेतद् यदने कथ्यते-'अतिवमन्ति सप्तमनरक पृथिव्यामग्ने वक्ष्यमाणाः पुरुषा गच्छन्तीति-के ते पुरुषाः ये सदसम. नरकपृथिव्यां गच्छन्ति तत्राह-'नरवसमा' इत्यादि, 'नरवसमा'. नरपमा:नरेषु वृषभतुल्याः कालभोगादौ अत्यासक्तरशत महामहिमवलशालिस्वाहा के। इत्याह-'केसवा' केशवा: वासुदेवाः 'जळचयराय' जलराश्य तन्दुलमत्स्य मभृतयः 'मंडलिया' माण्डलिका वसुप्रभृतयः, 'रायाणो' राजानश्चक्रवर्तिनः मुभूमादया 'जे य महारंभकोडुवी' ये च महारम्भकुटुम्बिनः काळसौकलिकादयः एते. तथा एतत्सदृषाश्च येऽन्येऽत्यन्तक्रूरकर्मकारिणस्ते सप्तमनस्कपृथिव्यां चाइल्यैन के विषय का है, उसके बाद 'पस्थ किर' यह गाथा कहनी चाहिये. अब घरम सूत्रोक्त सप्तम नरक पृथिवी प्रसंग से इस सप्तम नरक पृथिवी में जाने वालों को कहते हैं-'एस्थ फिर' इत्यादि । 'एत्थ' यहां अध सप्तमी पृथिवी में 'अतिवयंति' ये मनुष्य जाते है-जो 'नरवसभा' नरवृषभ होते हैं-मनुष्यों में वृषभ के तुल्य होते हैं-भो गादि को में अस्यासक्त होते है-अथवा-पडी भारी महिमा वाले पल के धारी होते हैं। उनके नाम इस प्रकार से हैं-'केसवा' वासुदेव 'जलयराय' तन्दुलमत्स्य आदि 'मंडलिया' माण्डलिक वसु आदि रायाणो' राजा-चक्रवती सुभूम आदि 'जे महारंभे कोडंपी' तथा-जो काल सौकरिक आदि के जैसे महारम्भवाले कुटुम्बी-गृहस्थजन थे लम खप्तम पृथिवी में जाते है तथा इसी 'एस्थ किर' मा गया हवा नम. હવે ચરમ સૂત્રમાં કહેલ સાતમી નરક પૃથ્વીના પ્રસંગથી આ સાતમી નરક પૃથ્વીમાં જવાવાળાના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવે છે. . 'एस्य किर' त्या. एत्थ' मडियां असभी पृथ्वीमा जति वयांति' २५ भनुष्यो य छे. या 'नरव सभा' न२ वृषम डाय छे. અર્થાત્ મનુષ્યમાં વૃષભ સરખા હોય છે. એટલે કે ભેગાદિમાં અત્યંત આસક્ત હોય છે અથવા અત્યંત મોટા મહિમાવાળા બળને ધારણ કરવા पाणा हाय छे. तयाना नाम मा प्रभारी छे. 'केसवा' वासुदेव 'जलयरीय' समय विगैरे 'मडलिया' भांति सुविगैरे 'रायाण' रामन यती सुभूम विगरे 'जे महारंभे कोडुपी' तथा रेसो ४० सीरि४ विरना २१॥ મહા આરંભવાળા કુટુમ્બી ગૃહસ્થજન આ બધા સાતમી પૃથ્વીમાં જાય છે,
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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