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________________ जीवामिगमसूत्रे - नरकावास भेदेन पङ्कप्रभा नारकाः तथोष्णामपि वेदनां वेदयन्ति, नरकावास -भेदेनेव किन्तु 'नो सीओसिणवेयणं वेदेति' नो नैव शीतोष्ण वेदनां वेदयन्ति । 'ते बहुतरंगा जे उसिणं वेषणं वेदेंति' तत्र ते बहुतरका ये उष्णां वेदनां वेद'यन्ति मभूततराणां शीतयोनित्वात् । 'ते थोक्तरगा जे सीयं वेयणं वेदेंति' ते स्वोकतरा ये शीतवेदनां वेदयन्ति अल्पदराणामुष्णयोनित्वादिति । धूमप्पमाए पुच्छा' धूपभभायाँ पृच्छा हे भदन्त ! धूमप्रभा नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति उष्ण वेदनांचा, शीतोष्णवेदनां वा वेदयन्ति इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवा' हे गौतम ! 'सीयंपि वेषणं वेदेति' शीतामपि वेदनां वेदयन्ति - 'गोयला ! लीयंपि वेयणं वेदेति उसिपि वेधणं वेदे सि' हे गौतम | वे नारक नरकावास के भेद से शीत वेदना का भी अनुभवन करते है और उसी प्रकार लरकावास के भेद से ही उष्ण वेदना का भी अनुभवन करते हैं - पर् 'णो सीतोसिणं देणं वेदेति' शीतोष्ण वेदना हा अनुभवन नहीं करते हैं । 'ते बहुतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति' ऐसे नारक जीव वहां अधिक हैं जो उष्णवेदनों का अनुभवन करते हैं क्योंकि प्रततर नारक जीवों की योनि शीत होती है । तथा 'ते थोतरा से लीयं वेषणं वेदेति' जो नारक जीन शीतवेदना का अनु -भवन करते हैं वे स्तोक तर बहुत घोडे हैं। क्यों कि यहां अल्पतरों की उष्णयोनि होती है । 'धूपभाए पुच्छा' हे भदन्त ! धूमप्रभा के नारक क्या शीतवेदना का अनुभवन करते हैं या उष्णवेदना का अनु भवन करते है ? या शीतोष्णरूप मिश्र वेदना का अनुभवन करते हैं । वेदेति उसिपि वेयण वेदेति' गौतम ! ते नारी नरावासना लेदृथी शीत વેદનાને! પણ અનુભવ કરે છે. અને એજ પ્રમાણે નરકાવાસના ભેરુથી જ G] वेदनाना पशु अनुभव उरे छे. परंतु 'णो खीयोसिणं वेयणं वेदेति' शीतोष्णु वेहनाना अतुलव ४२ता नथी. 'वे बहुतरगा जे उक्षिणं वेयणं वेदे ति' એવા નારક જીવે ત્યાં વધારે છે કે જેએ ઉષ્ણુ વેદનાને અનુભવ કરે छे. प्रभूततर नार वोनी योनी शीत होय छे, तथा 'वे थोवतरगा जे सीय वेयण' वेदेति' ? नार व शीत वेहनानो अनुभव उरे. तेथे સ્તાકતર અર્થાત્ ઘણા ઘેાડા હોય છે કેમકે અહિંયા અલ્પતરાની ઉષ્ણુચાની હૈાય છે. 'धूमप्पभाए पुच्छा' हे भगवन् धूमला पृथ्वीना नार व शुद्ध शीत વેદનાને અનુભવ કરે છે? અથવા ઉષ્ણુ વેદનાને અનુભવ કરેછે ? શીતેશ્ર રૂપ મિશ્ર વેદનાને અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે i - २८५ ▾ -
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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