SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ % 3A जीवाभिगमन २१६ खल्लु शब्दोऽधारणे, तथा च-यदि असंज्ञिनो नरके गच्छन्ति तदा मयमामेव नरकपृथिवीं गच्छन्ति न तु परत इति न तु ते संमृच्छिम पञ्चेन्द्रिया एत्र प्रथमामिति गर्भजसरीसृपादीनामपि उत्तर पटकपृथिवीगामिनामपि तत्र गमनादितिएवमुत्तर पृथिव्यादावपि अवधारण माननीयमिति । 'दोच्वं च सरीसिया' द्वितीयामेव शर्करामभाल्यां पृथिवी याबगच्छन्ति सरीसपा गोधानकुलसदियो गर्भव्युक्रान्ता न परत इति । 'तत्यपक्खो' तृतीयां वालुकाप्रमाख्यां पृथिवीं यावत् प्रथमपृथिवीत आरम् तृतीय पृथिदीपर्यन्त पक्षियो धादयो गच्छन्तीति । 'सीहा जंति चास्थि' चतुर्थी मे पृथिती यावत् पङ्का मारतां पृथिवी यावत् सिंहा वालों में वे उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा अवधारण यहां गाधा में रहे हए खलु पद से किया गया है इस्लले यह निपत्र नहीं समझना चाहिये कि सरीसृप आदि आगे की छहों पृधिचियों में जाने वाले प्रथम पृथिवी के नरकावासों में उत्पन्न नहीं होते है ये मरीसृप आदि यहां पर भी उत्पन्न हो सकते हैं-- __यही विषय हल गाथा द्वारा समझाया गया है-'दोच्चं च सरीसिया' सरीसृप-गोधा नकुल आदि गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीव शर्कराप्रभा पृधिवी तक केही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन होते हैं। इससे आगे की पृथिवियों के नरकाचासों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते है। 'तईय पकाखी' पालुज्ञापमा पृथिवी तक केही नरकवालों में पक्षी गृद्ध आदि पञ्चेन्द्रिय गर्भज पक्षि नारक रूप से उत्पन्न होते हैं इससे आगे की पृथिवियों के नरक्षावालों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते। 'सीहा जति चउत्थी' चौथी जो पडुमभा नाम की पृथिवी है વસોમાં તેઓ ઉત્પન્ન થતા નથી આ પ્રમાણેનો અર્થ આ ગાળામાં આપેલ 'खलु' ५४थी ४२पामा मावेस छ. तेथी मेवा निषेध समस्या नहीं है सशसुप વિગેરે પછીની છએ પૃથ્વીમાં જવાવાળા પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. આ સરીસૃપ વિગેરે તેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એજ વિષય આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા દ્વારા સમજાવવામાં આવેલ છે. 'दोच्च च सरीसिवा' सरीस५ ।, नाणीया विणे / पांय द्रियावाणा જી શર્કરપ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકવાસમાં જ નારકપણાથી ઉત્તપન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નરકાવાસમાં તેઓ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. 'तईय पक्खी' पादुमा पृथ्वी सुधीना न२४पासोमा ४ पक्षी भी वारे પાંચ ઈદ્રિયવાળા ગર્ભુજ પક્ષી નારકાપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની पृथ्वीयाना ना२पासोमा तेसो ना२४पाथी (4न यता नथी. 'सीहा जति
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy