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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २१५ उपवनंति' सरीसृपेभ्योऽपि आगत्य रस्नमायामुत्पद्यन्छे नारकाः पक्षिभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते उरगेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते, स्त्रीभ्योऽपि थागत्योत्पद्यन्ते, मत्स्यमनुष्येभ्योऽपि आगत्य रत्नप्रमाणे नारकाः समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसाठ इमार गाहाए अणुगंतव्चा' शेषासु-शर्कराममा प्रभृ. विषु पृथिवीषु अनया गाथा-वक्ष्यमाण सार्द्धगाथ या नारकाणां समुत्पद्यमानता अनुगन्तव्या-अनुसरणीया 'असन्नी खल्ल पढम' इत्यादि, 'असणी खलु पढमं' असंझिनः खलु संपछिम पञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथयां नरकपृथिवीन गच्छन्ति १, में नैरयिक जीव असंज्ञियों में से श्री आकर के उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्यों और मनुष्यों में से आकर के श्री उत्पन्न होते हैं, एके. न्द्रिय से लेकर असंज्ञो पश्चेन्द्रिय तक के समस्न जीव समूच्छिम ही होते हैं इसलिये सामान्धरूप से यहां ऐसा कर दिया गया है कि असंज्ञी जीव नरकों में-प्रथम नरक के नरकासासों में-उत्पन्न होते हैं इसी तरह से सरीसृपों-सरककर चलनेवालों में ले भी आकर के जीव प्रथम नरक के नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं पक्षियों में से, चतुष्पदों में से, उरगों में से, स्त्रियों में से, और मत्स्यों एवं मनुष्यों में से, आकर के जीव यहां प्रथम नरक के नरकावासों में उत्पन्न होते हैं । वाकी की पृथिवियों के नरकावासों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में यह डेढ गाथा ई-वह इस प्रकार है 'असण्णी खलु पढम' इत्यादि । जो असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव है वे तो प्रथम पृथिवी के ही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं आगे की पृथिवियों के नरका ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત મલ્યા અને મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એક ઈદ્રિયવાળા જીવોથી લઈને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય સુધીના સઘળા જ સંમૂર્ણિમજ હોય છે. તેથી સામાન્ય પણુથી અહિયાં એ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. કે અસંજ્ઞીજી નરકાવાસોમાં એટલે કે પહેલા નરકના નરકાવાસમાં નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પક્ષિામાંથી, ચોપગા પ્રાણીમાંથી, સર્પોમાંથી, સિમાંથી અને માછલીઓમાંથી તથા મનુષ્યોમાંથી આવેલા જીવ આ પહેલી નરકના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં આ દેઢ ગાથા ४ही छे. ते मा प्रभारी छे. 'असन्नी खलु पढन' त्यादि. એટલે કે જે અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેઓ તે પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસમાં જ નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નાકા
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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