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________________ કદ श्रीजीवाभिगमसूत्रे इमाओ र पवित्तीओ एवमादिज्जंति' संसारसमापन्नकेषु खलु जीवेपु इमा नव प्रतिपत्तयःवक्ष्यमाणनवसख्याकप्रतिपत्तयः - द्विप्रत्ययतारमादौ कृत्वा ततो दगप्रत्यवतारं यावत् ये नव प्रत्यवताराः तद्रूपा इत्यर्थ, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यायन्ते पूर्वाचार्यैरिति । अत्र नव प्रतिपत्तीति कथनेन प्रणालिकया अर्थाख्यानं द्रष्टव्यम्, प्रतिपत्तौ सत्यामेव शब्दार्थं प्रवृत्तिकरणादिति । प्रणालिकया अर्थाभिधानमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'एगे एवमाह दुविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता' एके आचार्याः एवमाख्यातवन्त', यत् द्विविधाः-द्विप्रकारकाः ससारसमापन्नका जीवाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति, ससारसमापन्नकजीवा द्विप्रकारका भवन्तीति कस्याप्याचार्यस्य मतम्, 'एगे एव माहंसु - तिविहा संसारसमान्नगा जीवा पन्नत्ता' एके आचार्याः एव माख्यातवन्तो यत् त्रिविधाः - त्रिप्रकारकाः संसारसमापन्नका जीवाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति । 'एगे एवमाहं चउन्विहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता' एके आचार्या एवमाख्यातवन्तो यत् चतुर्विधाः- चतुःप्रकारकाः संसारसमापन्नकाः जीवाः प्रज्ञप्ता' तीओ एव माहिज्जति" हे गौतम 2 ससारसमापन्नक जीवों में ये नौ प्रत्तिपत्तियां मान्यताएँ - द्विप्रत्यवतारको आदि में करके दश प्रत्यवतार तक पूर्वाचार्यों ने कहीं है जो इस प्रकार से हैं- एगे एमा- दुबिहा संसारसमान्नगजीवा पन्नत्ता' कोई कोई आचार्य ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव दो प्रकार के होते है - 'एगे एवमाहंसु तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता' कोई २ आचार्य ऐसा कहते हैं कि ससारसमापन्नक जीव तीन प्रकार के होते है । ' एगे एवमाहंसु चउन्विद्दा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता' कोई २ आचार्य ऐसा कहते है कि संसारसमापन्नक जीव- संसारीजीव चार प्रकार के होते है । 'एगे एमासु - पंचत्रिहा संसारसमावन्नगाजीवा पण्णत्ता' कोई २ आचार्य ऐसा महावीर प्रभुना उत्तर- ' संसारसमावन्नपसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिज्जंति" हे गौतम! ससार समापन्ना लवोना अक्षर विषे नव भान्यताओ - (तेभना એ પ્રકારથી લઈને દસ પર્યંતના પ્રકાર હાવાની માન્યતાએ પૂર્વાચાર્યાએ પ્રકટ કરી છે.) छे ने नव भान्यताओ नीचे प्रभाथे हे "पगे एवामाहंसु दुविहे संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता" अर्ध मायार्य मेवु छे हैं ससार सभायन्न वो मे प्रकारना होय छे. "एगे एवमाहंसु तिविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता" अर्थ अर्थ मायार्य मेबु उडे छे } सौंसार समापन्न कवोत्र अारना होय छे. “एगे एवामाहंसु चउविवहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता" अर्थ मेघ आयार्य मेवु आहे छे ! संसार सभायन्नहुँ छवो यार अारना होय छे. "एगे एवमाहंसु पंचविदा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता" अर्थ अर्ध मायार्य मेवु हे छेस सार समापन्ना व पांय अठार
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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