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________________ ५६० जीवाभिगमसूत्रे भरति ' भगवानाह— जहन्नेर्ण अंतो मुहुत्तं जवन्येन अंतोर्मुहुत्तम् उक्कोसेणं तरुकालो उत्कर्षेण नरकाल वनस्पतिकालपरिमितमन्तरं भवति । एवं सव्वेसिंजाव अहे सत्तमा एवं या ममी रत्नप्रभापृथिवीनारर्कनपुंसकवदेव सर्वेषां गर्कराप्रमादित आरम्याध समय नारनपुंसकपर्यन्तानामन्तरं वक्तव्यम् । 'तिरिक्ख जोणिय पुंसगस्त' निर्यग्योनिक नपुंसकस्य जहन्ने अन्तोमुहूतं' जघन्येनान्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति 'उक्कोसेणं सागरोवमसय पुदुमा उन्कर्षेण सागरोपमा पृथकत्वं सातिरेकमन्तरं भवति सातिरेकत्व च तदुपरि कनिपयनपुरक गावैववेदितव्यम् तत परं नपुंसकनामकर्मोदयाभावतो नियमतः स्त्रीपुरुषभावगमनात् असयत कहलाती है क्योंकि वनस्पति के भव से निकलकर जब अन्यभवो में जीव घूमता है वहां उसका पूर्वोक्त असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकाल तक अवस्थान होता है, उसके बाद संसारी जीव के नियम से फिर वनस्पति काय में उत्पत्ति होती है । "सेसाणं वेइंदियादीणं जावरा" ही तरह शेप द्वीन्द्रियनपुंसकों का यावत् तेइन्द्रियनपुंसको का चौइन्द्रिय कापचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जलचर नपुंसको का स्थलचर नपुंसकोका, खेचर नपुंसको का अन्तर "जहाँ अतोमुहु उक्कोसेणं वणस्सङकालो " जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त का है और उसे वनस्पतिकाल का प्रमाण है. "मणुस्स पुंसगस्त" सामान्य से मनुष्यनपुंसक का अन्तर “खेत्त पşच्च” क्षेत्र की अपेक्षा लेकर "जहन्नेणं" जघन्य से तो "अंतो मुहुतं एक अन्तर्मुहूर्त का है तथा "उक्कोमेणं वणस्सकालो" उत्कृष्ट से वनस्पपितकाल तक का है " जहन्नणं एकं समयं उक्कोसेणं अणतं कालं " चरित्र धर्म की अपेक्षा मेयर मनुष्य नपुंसक का जन्तर जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से अनन्तकाल का है. "जावोपरि मू" इस अनन्तकाल में अन्त उत्सर्पिणी फाल और अनन्त समम हो जाना है । तथा क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक समाप्त हो जाते हैं । "पुवी आउनेवाउपणं जगणं वतोमुरत उद्योसेण वणस्सकालोग 'पृथ्वीश्रयिष्ठ નપુસ્કાનું કાયિક નપુંશાનું તેજશ્વાયિક નપુસžાતુ અને વાયુ કાયિક નપુસકેાનુ' અ ંતર धवन्धयी मनमुटु छे नेष्टी वनस्पतिक्षण प्रभानुं तर "वणसहकास" वनस्पति ा िनयुंभ अंतर धन्ययी ! तरभुहूत' 'मेण असं का जाव असंतेजलोया" सृष्टथी अयम्यात अजनु ગ્યાર થાવત્ રાખ્યાન લેાકનુ છે. અસખ્યાત કાળની અપેક્ષાથી અસખ્યાત ઉત્સર્પિ શુા અને અવાપી ૭૫ ગ્ય છે અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અસ ખ્યાત લેાક પ્રમાણુ હાય છે. ઉલ્સપર્ણ અને વ્યવસિપીનું અાખ્યાન પત્ર આ પ્રમાણુંનું સમજવું એમકેઅસખ્યાત ટેગ યા પ્રમથી પ્રનિયમય એ એક પ્રદેશના અપાર કરવાથી ખાર કડાડવાથી ચા મા પ્રદેશોના સમાપ્ત થવામાં જેટલી પિવી અને અવસર્પિણીયા વીતી જાય
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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