SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 564
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाभिगमसूत्रे प्रव्रज्याप्राप्तिमधिकृत्य 'जहन्नेणं अंतो मुहुत्त' जघन्येनान्तमुहूर्तम् तत. परं मरणादिभावात् 'उक्कोसेणं देसूणा पुन्चकोडी' उत्कर्पण देशोना पूर्वक्रोटिप्रमाणा स्थितिर्भवति वर्षाप्टकादृय सयमप्राप्तेरनन्तरमाजन्मसयमपरिपालनादेशोनत्वमिति । कम्मभूमिग भरहेरवयपुन्वविदेहअवरविदेहमणुस्सणपुंसगस्स वि तहेव' कर्मभूमिकभरतैरवतपूर्व विदेहापरविदेह मनुष्यनपुंसकस्यापि तथैव, यथा सामान्यतो मनुष्य नपुंसकवदेव । तथाहि- कर्मभूमिक भरतैरवतविदेहापरविदेहमनुष्यनपुंसकस्य क्षेत्रापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहूतमुत्कर्पण पूर्वकोटिरेवेति, धर्मचरणापेक्षया जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कर्पतो देशोना पूर्वकोटिरिति ॥ 'अकम्म भूमिगमणुस्स णपुंसगरम णं भंते' अकर्मभूमिक मनुप्यनपुंसकस्य खलु भदन्त ! 'केवट्यं कालं ठिई पण्णत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता कथितेति प्रश्न , भगवानाह-- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जम्मणं पडुच्च' जन्म प्रतीत्य-जन्मापेक्षया 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' जघन्येनान्तर्मुहर्तम्, 'उक्कोसेण वि अंतोसुहत्तं' उत्कर्पणापि अन्तहै और उत्कृष्ट स्थिति देशोन एक पूर्व कोटिकी है । यहां आठ वर्ष में सयम प्राप्ति के अनन्तर जीवन पर्यन्त सयम पालना यही देशोनता है । "कम्मभूमिग भरहेरचयपुव्वविदेहावरविदेहमणुम्सणपुसगस्स वि तहेव" भरत और ऐवत क्षेत्र रूप कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की भी स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा एवं चारित्र धर्म की अपेक्षा जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से जैसी ऊपर मे कही गई है वैसी है। तथा पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह के मनुष्य नपुंसक की जधन्य स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा एक अन्तर्मुहर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व कोटिकी है । तथा चारित्र धर्म की अपेक्षा लेकर इन कर्म भूमिक क्षेत्र के नपुंसक की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहर्त की है और उत्कृष्टस्थिति देशोन पूर्व कोटिकी है ।-"अकम्मभूमिग मणुस्मणपुंसगस्सणं भते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता" गौतम ने पुन: इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! अकर्मभृमिक मनुष्य नपुंसक की स्थिति कितने कालकी कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-"गोयमा । जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं वि अंतो मुहत्तं" हे गौतम ! जन्म की अपेक्षा लेकर अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी एक अन्तर्मुहूर्त की है। अकर्मમિના મનુષ્ય નપુંસકની સ્થિતિ પણ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અને ચારિત્ર ધર્મની અપેક્ષાએ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વોક્ત કથન પ્રમાણેની સમજવી તથા પૂર્વ વિદેહ અને પશ્ચિમ વિદેહના મનુષ્ય નપુસકેની જઘન્ય સ્થિતિ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી એક અ તમેં હૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ એક પૂર્વ કેટિની છે તથા ચારિત્રધર્મની અપેક્ષાથી આ કર્મભૂમિ ક્ષેત્રના નપુસકેની જઘન્ય સ્થિતિ એક અતર્મહતની છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ દેશના પૂર્વ કેટિની છે. "अकम्मभूमिगमणुस्सणपुसगस्स णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता" गौतभस्वाभीसे ફરીથી આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવન અકર્મભૂમિના મનુષ્ય નપુસકેની शियात 2ainनी ४उवामां आवी छ ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभु छ -'गोयमा! जम्माणं पहच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं" 3 गौतम ! मनी अपे. લાથી અકમભૂમિના મનુષ્ય નપુંસકેની જઘન્ય સ્થિતિ એક અતર્મુહૂર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટ -
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy