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________________ ४३२ जोवाभिगमरणे स्त्रीत्वस्यान्तर जघन्यत उत्कर्पतश्च ज्ञातव्यम् तत्र जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्पतो वनस्पतिकाळ यावदन्तर स्त्रीत्वस्य ज्ञातव्यम् इति । कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणामन्तरमाह-'मणुस्सित्थीए खेत्वं पडुच्च जहन्नेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' मनुष्यस्त्रियाः क्षेत्रं प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण वनस्पतिकालो वनस्पतिकालं यावदन्तरं स्त्रीत्वस्य भवतीति । 'धम्म चरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं' धर्मचरणं चरणधर्म प्रतीत्य जघन्येनैक समयम् “उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्ढपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण' उत्कर्षेणानन्तं काल यावदपापुद्गळपरावर्त देशोनम् । अयं भावः- कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रियाः कर्मभूमिकक्षेत्र प्रतीत्य जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कर्षतोऽनन्तकालवनस्पतिकालप्रमाणम् धर्मचरणं प्रतीत्य जघन्येन समयेक सर्वनघ सामान्य मनुष्य स्त्रियोंका पुनः स्त्रीत्व की प्राप्ति का विरह काल जघन्य और उत्कृष्ट से जान लेना चाहिए जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट से वनस्पति काल प्रमाण वह विरह काल है ऐसा जानना चाहिए, अब कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों के विषय में कहते हैं-'.मणुस्सित्थीए खेत्तं पहुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं क्णस्सईकालो " इसी प्रकार से क्षेत्रको अपेक्षा लेकर कर्मभूमिक मनुष्य स्त्री मनुष्य स्त्री की पर्याय को छोड़कर पुनः उसी पर्याय की प्राप्ति कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त के व्यतीत हो जाने के बाद और उत्कृष्ट से वनस्पति काल के व्यतीत हो जाने के बाद प्राप्त करती है "धम्मचरणं पडच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंत कालं जाव अवड्ढ पोग्गलपरिय देसूर्ण" धर्माचरण-चारित्र धर्मको लेकर जघन्य से अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट से अन्तर अनन्त काल तक का यावत् देशोन अपार्घ पुद्गल परावर्त तक का है अर्थात् प्राप्त की गई चरणलब्धि इतने समय મનુષ્ય સિને ફરીથી સ્ત્રીપણાની પ્રાપ્તિને વિરહકાળ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાલ प्रभार ४ छतभ सभा. हुवे भभूमिका मनुष्य सियोना सधमा सूत्रा२ ४थन ४२ छे. "मणुस्सित्थीप खेतं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो" मे प्रभाव क्षेत्रनी मपेक्षाधी કર્મભૂમિ જ મનુષ્યસ્ત્રી, મનુષ્ય સ્ત્રીની પર્યાયને છોડીને ફરીથી મનુષ્ય સ્ત્રીના પર્યાયની પ્રાપ્તિ ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂત વીત્યા પછી અને ઉત્કૃષ્ટથી વનસ્પતિકાળ વીતી ગયા પછી ४२ छ "धम्मचरणं पडुच्च जहण्णेण एकं समयं उक्कोसेण अणतं कालं जाव अवइपोग्गलपरियह देसूर्ण" र्भायर -यारित्रवान धन्यथा समयनु भत२ ने ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાલ સુધીનું અંતર યાવત્ દેશેન અપાઈ પુદ્ગલપરાવર્ત સુધીનું છે.
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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