SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ } गर्भकान्तिकस्थलचरजीवनिरूपणम् २९७ मेघौतिका टीका प्रति० १ प्रश्न सप्पा दुविधा पन्नत्ता' परिसर्पाः द्विविधाः द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति । भेदद्वयमेव दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तथथा - उरपरिसप्पा य भुजपरिसप्पा य' उरः परिसर्पाश्च भुजपरिसर्पाश्च तत्र - उरसा - उरो हृदयबलेन ये परिसर्पन्ति - गच्छन्ति ते उरः परिसर्पाः तथा भुजाभ्यां परिसर्पन्ति ये ते भुजपरिसर्पाः । तत्र प्रथमम् उरः परिसर्प विशेषतो निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'से किं तं' इत्यादि, 'से किं तं' उरपरिसप्पा' अथ के ते ऊरः परिसर्पाः इति ऊत्तरयति - 'संमूच्छिमोरः परिसर्पातिदेशेन - 'उरपरिसप्पा तहेव' ऊरः परिसर्पास्तथैवतेनैव रूपेण निरूपणीयाः यथा - संमूर्च्छिमोरः परिसर्पप्रकरणे निरूपिताः । समूच्छिमप्रकरणात् यद् वैलक्षण्यं तद्दर्शयति - आसालियवज्जो भेदो भाणियन्बो' आसालिकवर्जी भेदो भणितव्यः, तत्रोर परिसर्पाणाम् आसालिकोऽपि कथितः, अत्र तु आसालिकमेदो न वर्णयितव्यः, दुविहा पन्नत्ता हे गौतम ! परिसर्प दो प्रकार के कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से है "उरपरिसप्पा य भुजपरिसप्पा य" एक उरः परिसर्प और दूसरे भुजपरिसर्प इन में जो छाती के बल से चलते हैं वे उरःपरिसर्प हैं और जो भुजों के बल से चलते है वें भुजपरिसर्प हैं है भदन्त ! " से किं तं उरपरिसप्पा" उरः परिसर्प का क्या लक्षण है और कितने इनके भेद हैं ' संमूच्छिम उरः परिसर्प के अतिदेश द्वारा उनके भेद कहते है - " उरपरिसप्पा तहेव " हे गौतम ! संमूर्च्छम उरः परिसर्प प्रकरण में जिस रूप से उरः परिसर्प निरूपित हुए हैं उसी रूप से यहां पर भी इन गर्भन उर. परिसपों का निरूपण करलेना चाहिये परन्तु "आसाळियवज्जो भेदो भाणिraat" उस प्रकरण से इस प्रकरण में जो विशेषता है वह ऐसी है कि यहां पर आसालिक का वर्णन नहीं करना क्योंकि आसालिक - समूच्छिम ही होते है । गर्भन नहीं होर्ते आसालिक यह उरःपरिसर्पों का एक भेद है इसी कारण उसे यहां वर्जित कहा गया है । प्रभु गौतमस्वाभीने हे छे – “परिसप्पा दुविधा पण्णत्ता" हे गौतम ! परिसर्प मे अारना उडेला छे, “तं जहा " ते मे अअर आ अभा छे. “उरपरिसप्पा य भुजपरिसહવા થ” એક ઉર:પરિસપ` અને ખીજા ભુજપરિસ, તેમાં જે છાતીના ખળથી ચાલે છે, તેઓ ઉર પરિસપ છે, અને જે હાથના ખળથી ચાલે છે, તે ભુજપરિસપે छ. लगवन् "से किं तं उरपरिसप्पा" २ः परिसर्पना शु दक्ष छे ? मने तेना કેટલા ભેદો કહેલા છે ? સમૂચ્છિ મઉ:પરિસર્પના અતિદેશ દ્વારા પ્રભુ કહે છે કે "उरपरिसप्पा तहेव" हे गौतम! स भूमि उ२:परिसर्प ना अश्शुभां ने प्रभा ઉર્.પરિસર્પનું નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિયાં પણ આ ગભજ ઉ૨: परिसपेनु निषाणु समल बेबु परंतु "आसालियवज्जो भेदो भाणियव्वो" ते अना કથન કરતાં આ પ્રકરણમાં વિશેષ પણ છે. તે એટલુ જ છે કે—અહિયાં આસાલિકનુ વર્ણન કરવાનુ નથી કેમ કે—આસાલિકા સમૂમિ જ હોય છે ગજ હાતા નથી માસાલિક એ 'ઉર પસરિસર્પોના એક ભેદ છે તેજ કારણથી તેને અહિં વર્જીત કહેલ છે. ૧૮
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy