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________________ जीवाभिगमसूत्रे क्रान्तिकजलचरनीवा' सर्वगतिभ्य आगत्य अत्रोत्पद्यन्ते तत्र यदि नैरयिकेभ्य उपपातस्तदा रत्नप्रभात आरभ्य तमस्तमा पृथिवी पर्यन्तेभ्यः सप्तपृथिवीभ्योऽपि उपपातो भवतीति । 'तिरिवखजोणिएहिंतो सम्वेदितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो' तिर्यग्योनिकेभ्यः सर्वेभ्योऽसंख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यः, यदि तिर्यग्योनिकेभ्य उपपातो भवति तदा असंख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यः सर्वेभ्य एव तिर्यग्योनिकेभ्य उपपातो भवतीति । 'मणुस्सेर्हितो अक्रम्म भूमग-अंतरदी वगभमखेज्जवा साउयवज्जेर्हितो' मनुष्येभ्यः अकर्म भूमिकान्तरद्वीपका सख्येयवर्षायुष्कवर्जेभ्यः, यदि जलचराणां मनुव्येभ्य उपपातो भवति तदा कर्मभूमि कान्तरद्वीप का संख्ये य वर्षायुष्कवर्जितमनुष्येभ्य एवीपपातो भवतीति । 'देवेर्हितो जाव सहस्सारा' देवेभ्यो यावत् सहस्राराः यावत् सहस्रारदेवलोकदेवा वर्त्तन्ते तावत्पर्यन्तदेवेभ्य इत्यर्थ', यदि देवेभ्य उपपातो भवति तदा सौधर्मादारम्य २८८ से होता है । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है-गर्भज जलनर जीव- सर्व गतियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं-यदि ये नैरयिकों में से आकरके उत्पन्न होते है तो रत्नप्रभा से लेकर तमस्तमा जो सातवीं पृथिवी है, वहां के नैरयिकों में से इनका उत्पाद होता है । यदि तिर्यग् योनिक जीवों में से इनका उत्पाद होता है तो 'तिरिक्जोगिए हिंतो सव्वैर्हितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो' असंख्यात वर्षायुष्कतिर्यग्योनिकों को छोड़ कर बाकी के समस्त कर्मभूमिज तिर्यश्वों में इनका उत्पाद होता है । यदि मनुष्यों में से इनका उत्पाद होता है तो "मणुस्सेर्हितो अकम्मभूमगअंतरदीवगअसं खेज्जवासा उयवज्जेहिंतो' अकर्मभूमि के एवं अन्तरद्वीपों के मनुष्यों में से इनका उत्पाद नहीं होता है क्योंकि ये सब असंख्यात - वर्ष की आयुवाले होते हैं असंख्यातवर्ष की भायुवालों में से इनका उत्पाद होना निषिद्ध कहा गया है | अतः इनके सिवाय और सब मनुष्यों में से इनका उत्पाद होता है "देवेहिंतो जाव सहस्सारा" यदि देवों में से इनका उत्पाद होता है तो सौधर्म से लेकर सहस्रार तक આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે - ગાઁજ જલચર જીવ બધી જ ગતિામાંથી આવીને *ઉત્પન્ન થાય છે, રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઇને તમસ્તમા કે જે સાતમી પૃથ્વી છે, ત્યાંના નૈયિકામાંથી તેના ઉત્પાત-ઉત્પત્તિ થાય છે જો તિય જ્ગ્યાનિકેામાંથી તેઓના ઉત્પાદ उत्पत्ति होय तो "तिरिक्खजोणिपछि तो, सवेद्दितो असंखेज्जवासा उयवज्जे हितो” અસખ્યાત વર્ષાયુષ્ય તિયચાને છેડીને ખાકીના કમભૂમિના સઘળા તિય "ચામાં તેઓને उत्पात होय . "मणुस्सेहितो अफम्मभूमग अंतरदीवग असंखेज्जवासाउयवज्जेहितो" અકમભૂમિના અને અંતરદ્વીપાના મનુષ્યેામાં તેમના ઉત્પાત—ઉત્પત્તિ થતા નથી. કેમકે આ ખધા અસખ્યાત વષઁની આચુષ્યવાળા હોય છે, અસંખ્યાત વષઁની આયુષ્યવાળા આમાંથી તેમના ઉત્પાત થવાના નિષેધ કરેલ છે. તેથી તેના શિવાચના ખાકીના સઘળા भनुष्यैाभांथी तेभने। उत्यात उत्पत्ति थाय छे. “देवेद्दितो नाव सहस्सारा” ले वामां
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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