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________________ २५२ जीवाभिगमसूत्रे संमुच्छिमा दुविहा पन्नत्ता' स्थलचरपरिसर्पसमूच्छिमजीवाः द्विविधाः - द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः, द्वैविव्यं दर्शयति- 'तं जहा ' इत्यादि, 'तं जहा ' तथथा - 'उर परिसप्पसंमुच्छिमा ' उरःपरिसर्पसंमूर्च्छिमा', उरसा - वक्षस्थलेन परिसर्पन्ति - गच्छन्ति ये ते उरः परिसर्पाः सर्पादयः । 'भुयपरिसप्प संमुच्छिमा' भुजपरिसर्पस मूर्च्छिमाः, भुजाभ्यां परिसर्पन्ति गच्छन्तीति भुजपरिसर्पा स्तादृशाश्च ते समूच्छिमा इति भुजपरिसर्पसंमूर्च्छिमाः गोधादयः, तथा च- उरः परिसर्पभुजपरिसर्पमेदेन स्थलचर परिसर्पसंमूर्च्छिमाः द्विविधा भवन्तीति भावः । ' से किं तं उरगपरिसप्पसमुच्छिमा' अथ के ते उरः परिसर्पसंमूच्छिमाः इति प्रश्नः, उत्तरयति 2 - - स्थलचर चतुष्पदों का निरूपण करके अब समूर्च्छिमस्थलचरपरिसर्पो का निरूपण करते हैं—" से किं तं थलयरपरिसप्पसमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया" इत्यादि ॥ टीकार्थ - " से किं तं धलयरपरिसप्पसंमुच्छिम पंचिदियतिरिक्खजोणिया " दे भदन्त ! स्थलचर परिसर्प संमूच्छिमपंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-"थलयर परिसप्प समुच्छिमा दुविधा पन्नत्ता" हे गौतम ! स्थलचर परिसर्प पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकजीव दो प्रकार के कहे गये हैं- "तं जहा " जो इस प्रकार से है, ' उरपरिसप्पसंमुच्छिमा भुयपरिसप्प समुच्छिमा” एक उरः परिसर्पसंमूर्च्छिम पञ्चेन्द्रिय और दूसरे भुजपरिसर्प संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय जो छाती से सरक कर चलते हैंअर्थात् छाती के बल पर चलते है ऐसे वे उरः परिसर्प संमूर्च्छिम तिर्यग्पंचेन्द्रिय जीव हैं । तथा जो हाथों के सहारे से चलते हैं वे भुजपरिसर्पसं मूच्छिमतिर्यगूपंचेन्द्रिय जीव हैं । "से" किं तं उरपरिसप्प समुच्छिमा" हे भदन्त ! वे उरः परिसर्पसमूर्च्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो સ્થલચર ચતુષ્પદોનુ નિરૂપણુ કરીને હવે સમૂચ્છિŚમ સ્થલચર પરિસ'નુ નિરૂપણુ वामां आवे छे " से किं तं थलयरपरिसप्प संमुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया" इत्यादि. टीअर्थ - " से किं तं थलयरपरसम्पर्समुच्छिमपंचिदियतिरिक्खजोणिया " त्याहि. હે ભગવન્ સ્થલચર પરિસપ સમૂમિ પંચેન્દ્રિય તિય ચૈાનિકજીવ કેટલા अठारना छे ? या प्रश्नना उत्तरभां प्रभु गौतमस्वाभीने हे छे – “थलयर परिसप्प संमुच्छिमा दुविद्या पण्णत्ता" हे गौतम! स्थसयर परिसर्प येन्द्रिय तिर्यग्योनि४लवमे अारना डेला छे. "तं जहा " ते मे प्रारे आ अभाये छे. “उर परिसप्पसमुच्छिमा भुयपरिसप्प समुच्छिमा" मे २ः परिसर्प सभूरिछस यथेन्द्रिय मने जीन लुक परि સ સ સૂર્ચ્છિમ પંચેન્દ્રિય. જેએ છાતીથી સરકીને ચાલે છે, અર્થાત છાતીના બળથી ચાલે છે તેવા જીવા ઉરઃ પરિસપ સમૂમિતિય ૫ શેન્દ્રિય જીવ છે. તથા જેએ હાથેાની सहायथी या छे, तेथे परिसूर्य सभूमि तिर्यव्ययेन्द्रिय छे, "से किं तं उरपरिसप्पसंमुच्छिमा" से लगवन् ते २: परिसर्प सभूभि यशन्द्रिय तिर्यग्योनि व डेटला अभरना होय छे ? आ प्रश्नमा उत्तरमा अलु आहे छे - उरगपरिसप्प समुच्छिमा चउ
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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