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________________ प्रद्योतिका टीका नं १. श्रीन्द्रियंचतुरिन्द्रियजीवनिरूपणम् २०३ प्तानि—कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ' 'तओ सरीरगां पन्नत्ता' चतुरिन्द्रियजीवानां त्रीणि शरीराणि प्रज्ञप्तानि 'तं चेव' तदेव - द्वीन्द्रियवदेव औदा - रिकं तैजसं कार्मणम् । अवगाहनादिद्वारे वैलक्षण्यं विद्यते तद्दर्शयति- 'नवरं' इत्यादिना, 'नवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई' नवरं केवलं शरीरावगाहना चतुरिन्द्रियजीवानां चतस्रो न्यूतयः, जघन्या शरीरावगाहना तु अंगुलासंख्येय भागप्रमाणैवेति । 'इंदिया चत्तारि ' इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुरूपाणि चत्वारि भवन्ति चतुरिन्द्रियजीवानाम् अतएव एतेषां चतुरिन्द्रिय इति नाम भवति । दर्शनह रे - 'चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी' चक्षुरिन्द्रियजीवा चक्षुर्दर्शनिनोऽपि भवन्ति अचक्षुर्दर्शनिनोऽपि भवन्तीति । स्थितिद्वारे - 'ठई उक्कोसेणं छम्मासा' चतुरिन्द्रियजीवानां स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण तु षण्मासान् इति । 'सेसं जहा तेईदियाणं जाव असंखेज्जा पन्नत्ता' शेपम् - शरीरावगाहनेन्द्रियदर्शन स्थितिद्वारातिरिक्तं सर्व संस्थानादिद्वारजातं यथा त्रीन्द्रियाणां कथितं तथैव चतुरिन्द्रियाणामपि ज्ञातव्यम् कियत्पर्यन्तं होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते है - हे गौतम ! इनके "तओ सरीरगा पन्नत्ता" तीन शरीर होते हैं "तं चेव" वे तीन शरीर औदारिक, तैजस और कार्मण हैं । अवगाहना द्वार में इनके शरीरकी अवगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और उत्कृष्ट से चार कोश प्रमाण होती है । "इंदिया चत्तारि" इनके इन्द्रियां - स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इस प्रकार से चार होती है । इसी कारण इनका नाम चौइन्द्रियजीव ऐसा हुआ, है | दर्शनद्वार में इनके दो दर्शन होते हैं-चक्षु दर्शन भी होता है और अचक्षु दर्शन भी होता है । स्थितिद्वार में "ठिई उक्कोसेणं छम्मासा" इनकी स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट स्थिति इनकी छहमास की होती है । " सेसं जहा तेइंदियाणं जाव असंखेज्जा पन्नत्ता' इस प्रकार शरीर अवगाहना इन्द्रिय दर्शन स्थिति 2 णं भंते जीवाणं कह सरीरगा पण्णत्ता" हे भगवन् या यौधद्रिय लवाने डेंटला शरीशे होय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अनु छे - हे गौतम! तेमाने "तो सरीरंगा पन्नत्ता" शु शरीरे | होय हे "तं चेव" ते अहार - मोहारिए शरीर, तैन्स भने કામણુ એ પ્રમાણેના છે. અવગાહના દ્વારમાં તેએના શરીરની અવગાહના જઘન્ય થી તે ગળના અસખ્યાતમાં ભાગ પ્રમાણની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ચાર કૈાસ પ્રમાણની છે "इंदिया चत्तारि" तेयोनी 'दिये। स्पर्शन रसना, प्राणु भने यक्षु आ अभायार હોય છે. તેજ કારણથી તેએનું નામ ચૌઇન્દ્રિય જીવ એ પ્રમાણેનુ છે. દ નદ્વારમાં—તેઓને ચક્ષુદČન અને અચક્ષુદન આ પ્રમાણેના એ દના હોય छे स्थितिद्वारमां “ठिई उक्कोसेणं छम्मासा" तेथोनी स्थिति धन्यथी खेड अतर्भुतनी होय छे मने उत्कृष्टथी तेथोनी स्थिति छभासनी होय छे 'सेसं जहा तेइंदियाणं जाव असंखेज्जा पण्णत्ता" भी प्रमाणे शरीर, अवगाहना' द्रिय, दर्शन स्थिति याद्वारेरा
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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