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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० १ औदारिक सजीवनिरूपणम् १९३ नवा पुरषवेदका भवन्ति किन्तु केवलं नपुंसकवेदका एव भवन्तीति । पर्याप्तिद्वारे - 'पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ' पञ्च पर्याप्तयः पञ्चापर्याप्तयो भवन्ति द्वीन्द्रियाणामिति । दृष्टिद्वारे - 'सम्मट्ठीविमिच्छादिट्ठि वि नो सम्मामिच्छादिट्ठी' ते द्वीन्द्रियजीवाः सम्यग् दृष्टयोऽपि भवन्ति मिथ्यादृष्टयोऽपि भवन्ति न तु सम्यग् मिथ्यादृष्टयः (मिश्रदृष्टयः ) भवन्तीति । भत्रैवं ज्ञातव्यम्-यथा घण्टायां वादितायां महान् शब्दः संजायते तत उत्तरकालं क्रमशो हीयमानोऽन्ते लालामात्रं भवति । एवं घण्टालालान्यायेन अवसाने किञ्चित्सास्वादनसम्यक्त्वमवशिष्टं भवेत् तादृशाः सन्तः केचित् द्वीन्द्रियेषु समुत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालमास्वादनमात्र सास्वादनसम्यक्त्वं संभवेत् अतस्ते सम्यग्दृष्टय इत्युक्तम्, शेषकाले मिध्यादृष्टिस्तेषा मतो मिथ्यादृष्टय इत्युक्तम् तथाभवस्वभावतया तादृशपरिणामायोगात् तेन सम्यग् . मिथ्या होते है । "पर्याप्तिद्वार में - "पंच पज्जत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ" ये पांच पर्याप्तिवाले होते हैं और पांच अपर्याप्तिवाले होते है । दृष्टिद्वार में - " सम्मदिट्ठी विमिच्छादिट्ठी वि” ये द्वीन्द्रियजीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिध्यादृष्टि भी होते हैं । पर “नो सम्मामिच्छादिट्टी" ये मिश्रदृष्टि नहीं होते है । यहाँ ऐसा जानना चाहिये – जैसे घण्टा के बजने पर महान् शब्द होता है, वह उसके उत्तर काल में क्रम २ से हीयमान होता हुआ अन्त में वह शब्द घंटा की लाला - लटकण तक ही रह जाता है, इस प्रकार घंटा लालान्याय से अवसान में - मृत्यु समय में जीव के आस्वादन मात्र सास्वादन सम्यक्त्व अवशिष्ट रह जाता है, ऐसी अवस्था में मरकर कई एक जीव द्वीन्द्रिय में उत्पन्न हो जाते हैं अतः उनके अपर्याप्तावस्था में कुछ काल तक - सास्वादन सम्यक्त्व रहता है, इसलिये वे सम्यग्ष्टि कहे गये है । शेषकाल में वे मिध्यादृष्टि होते ही है अतः वे मिध्यादृष्टि भी कहे गये हैं किन्तु उस प्रकार के भवस्वभाव से, तथाविध परिणामों का उनको योग नहीं होता है इस कारण से वे सम्यग् - पुरषवेद्य वाजा होता नथी. पर्याप्तिद्वारभां 'पंचपज्जत्तीओ पंच अपज्जन्तीओ" तेथे यांच पर्याप्तियोवाजा होय छे, अने पांय पर्यासियोवाणा होय छे दृष्टिद्वारभां - " सम्मदिट्ठी विमिच्छादिट्ठी वि" मा मे इन्द्रियवाला वो सभ्यहष्टिवाणा यागु होय छे. अने मिथ्यादृष्टिवाणा होय छे परंतु "नो सम्मामिच्छादिट्ठी" तेथे मिश्र दृष्टिवाणा होता नथी. અહિંયા એવું સમજવું જોઈએકે—જેમ ઘટ વાગતા પહેલાં માટા અવાજ થાય છે તે તેના પછીના સમયમાં ક્રમ ક્રમથી ઘટતા ઘટતા છેવટે એ શબ્દ ઘંટની લાલા-લટકણુ સુધી જ રહીજાય છે. આ રીતે ‘ઘઉંટ લાલા” ન્યાયથી અવસાન સમયે એટલે કે મરણકાળે જીવના આસ્વાદન માત્ર સાસ્વાદન સમ્યક્ત્વ ખાકી રહે છે. એવી અવસ્થામાં મરીને કેટલાકજીવા એ ઇંદ્રિયમાં ઉત્પન્નથઈ જાય છે. તેથી તેએની અપર્યાપ્તાવસ્થામાં કેટલાક કાળ સુધી સાસ્વાદન સમ્યક્ત્વ રહે છે. તેથી તેઓને સમ્યગ્દષ્ટિ કહેલા છે. શેષ પછીના કાળમાં મિથ્યાષ્ટિ હાય છે. તેથી તેઓને મિથ્યાદૃષ્ટિ પણ કહેલા છે. પરંતુ તેવા પ્રકારના ભવ २५
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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