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________________ जीवाभिगमलने यथा प्रज्ञापनायां भेदः कथितः तथैव इहापि भेदो ज्ञातव्यः । कियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं वक्तव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तं जहा पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' यावत्ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च, एतदन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं वक्तव्यम् , प्रज्ञापनाप्रकरणं चेत्थम् -'किण्हमट्टिया नीलमटिया लोहियमडिया हालिदमटिया मुक्किल्लमट्टिया पंड्डमट्टिया पणगमट्टिया सेत्तं सहवायरपुढवीकाइया । से कि तं खरवायरपुढवीकाइया ? खरवायरवुढवीकाइया अणेगविहा पन्नत्ता तं जहा पुढवी य सकरा वालुया य उवले सिला य लोणसे । तंवा य तउय सीसय रुप्प सुवण्णे य बयरे य ॥१॥ हरियाले हिंगुलए, मनोसिला सासगंजणपवाले । अभपडलब्भवालय वायरकाए मणिविदाणा ॥२॥ गोमेज्जए य रुयए, अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले, भुजमोयगे इंदनीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसे, पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे । चंदप्पम वेरुलिए जलकंते सूरकंते य ॥४॥ जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' ।। कृष्णमृत्तिका नीलमृत्तिका लोहितमृत्तिका हारिद्रमृत्तिका शुक्लमृत्तिका पाण्डुमृत्तिका पनकमृत्तिका तदेते श्लदणवादरपृथिवीकायिका. । अथ के ते खरवादरपृथिवीकायिकाः ? खरवादरपृथिवीकायिका अनेकविधा प्रज्ञप्ताः तद्यथाजहा पण्णवणाए" इनके भेद जैसे प्रज्ञापना में " जाव ते समासओ दुविहा पन्नत्ता तंजहा पज्जतगा य अपज्जत्तगाय " यावत् वे सक्षेप से पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के हैं, इस सूत्र तक कहे गये है वैसे ही वे सव यहां पर भी सूत्र कह लेना चाहिये । वह प्रज्ञापनाप्रकरण इस प्रकार से है-" कण्हमटिया" इत्यादि टीका से समझ लेना चाहिये । इन सूत्रों की टीका प्रज्ञापना सूत्र से ही जान लेना चाहिये, तात्पर्य इस कथन का यही है कि श्लक्ष्ण अजी भटिवाणा विजे२ "मेओ जहा पन्नवणाप" प्रज्ञापनासूत्रमा 241 क्षय माह२ पृथ्वी यिहीना सेहोरेशते ४॥ छ रेभ-"जाव ते समासओ दुविहा पण्णत्ता तं जहा पजत्तगा य अपज्जत्तगा य" यावत् तया सपथी पर्यात भने अपर्यातना सहथी मे પ્રકારના છે, આ સૂત્રપાઠ સુધી જે રીતે વર્ણવ્યા છે એ જ પ્રમાણે તે બધાં ભેદ અહિયાં ५ सूत्र३२ ४ा न त प्रजापना सूत्रनु ४२५ मा नाचे प्रभारी छ-"कण्ह मटिया' इत्यादि" ४थन टीथी समवj, मासूत्रानी टी प्रज्ञापनासूत्रमाथी समोवी.
SR No.009335
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages690
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size45 MB
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