SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 842
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीयूपपिणो-टीका शास्त्रोपसंहार ७२९ मूलम्-सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वापिंडिओजड हवेजा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा ॥ सू० १२१ ॥ वर्ग =अनन्तैरपि वर्गव , तत्र तद्गुणो वर्गों, यथा द्वयार्वर्गश्चवार , तस्यापि वगा वर्गवगा, यथा घोडश, एवमनन्तगो बर्गितमपी यर्थ । म १२० ॥ टीका-'सिद्धस्स' इयादि । 'सिद्धम्म' सिद्स्य 'मूहो' सुरव =मुस् सम्बन्धी 'रामी' रागि समूह , स च-'सबद्धापिडिओ' सद्विापिण्डित -सवादाभि = सर्वकालसमयै पिण्टितो गुणितो 'जड हवेना' यति भवेत् , 'सो' स पुन 'अणतबग्गभडओ' अनन्तवर्गभक्त =अनन्तगर्षिभागीकृत , 'सव्वागामे' साssका लोकालोकन्छपे 'ण माएजा' न मायात्-न स्थातु शुक्नुयात् । अय भाव -दह फिल निरुपम सुख गृह्यते, ततश्च यत आरभ्य लोक मुखगन्दप्रवृत्ति , तदवधीय एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावत् तत् सुख के वर्ग करने का नाम वर्गवर्ग है। जिस प्रकार दो का वर्ग ४, और चार का वर्ग १६ होता है। १६ वर्गवर्ग है । म् १२० ॥ 'सिद्धम्स मुहो रासी' इयादि । (सिद्धस्स मुद्दो रासी मन्बद्वापिडियो जद हवेना)सिद भगवान के मुख को जो राशि है वह सर्वकाल के समया से यदि गुणित की जाय, और (सोऽणववग्गभइओ) उस उपन महारागि में अनन्त वर्गों मे भाग दिया जाय, तो भी ( सन्चागासे ण माएना) वह सिदों के मुखो की विभक्त सुरवगशि समस्त आकाश मे नहीं समा सकती है। मतल्न इसका यह है कि लोक मे जो मुस-सन्ट से कहा जाता है उस सुग्न में एकएक गुण की क्रमिक वृद्धि से जब वह सुख अनन्तगुण वृद्धि पाकर अपनी अन्तिम अवधि છે વગેરે વગે કરે તેનું નામ વર્ગવગ છે જે પ્રકારે ૨ નો વર્ગ ૪, અને ચારને વર્ગ ૧૬ થાય છે ૧૬ વર્ગ–વગે છે (જૂ ૧૨૦) 'सिद्धम्स सुहो रासी' त्यादि (सिद्धस्स हो रासी सम्बद्वापिंडिओ जइ हवेजा) भिख मानना સુખની જે રાશિ છે તેને સર્વકાળના સમયથી જે ગુણવામાં આવે અને ( सोऽणतवामइओ)तनाथी सत्पन्न ययेसी त महाशिने मन त पाथी मी हवामा आवे तो पर (सव्वागासे ण माएज्जा) सिद्धीना सुभानी ભાગલબ્ધ સુખશિ સમસ્ત આકાશમાં સમાઈ શકતી નથી અને અભિપ્રાય એ છે કે લેકમાં જે સુખ-શબ્દથી કહેવાય (સમાય) છે તે સુખમાં એક એક ગુણની ક્રમિક વૃદ્ધિથી ત્યારે તે સુખ અનન્તગુણ વૃદ્ધિ
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy