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________________ औपपातिक मूलम् -- जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धापिंडियं अनंतगुणं । णय पावइ मुत्तिसुहं णंतेहिं वग्गवग्गेहिं ॥ सू० १२० ॥ ७२८ टीका - कस्मादेव सुन भरतीयत आह-'ज देवाण' इयादि । 'ज' यद् 'देवाण' देवानाम् = अनुत्तरसुरान्ताना 'सोक्ख' सौत्यकालिकसुर, तद्यन 'सन्द्धापिंडिय' सर्वाद्वापिण्डितम् - सर्वाया अतीतानागतवर्तमानकालेन पिण्डितम् = गुणित, तथा 'अनंतगुण' अनन्तगुणमिति, तदेव प्रमाण किase कल्पनया एकैकाssकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येव सकललो काकाशानन्तप्रदेशपूरणेनाऽनन्त भरति, एवभूत दवस 'णय पान मुनिसुह' न च प्राप्नोति मुक्तिमुस=नै मुक्तिमुखसमानता लभते, अनन्ताऽनन्तचात् सिद्धसुखस्य । किंविध देवसुखमित्याह - 'णतेहिं वग्गग्गेटिं' अनन्तैर्वर्ग 'ज देवाण सोक्ख' इत्यादि । ( ज देवाण सोक्ख सव्वद्धापिंडिय अणतगुण ) जो सर्व देवों का त्रैकालिक सुस है उसे अनन्तगुणा किया जाय तो भी वह ( ण य पावइ मुत्तिमुह णतेहिं वग्गवग्गेर्हि) सिद्ध भगवान् के एक क्षणोद्भव सुख की बराबरी नहीं कर सकता है । इसे यों समझना चाहिये कि सर्वदेवों का त्रैकालिक सुख एक २ आकाश के प्रदेश पर स्थापित करते २ आकाश के अनत प्रदेश उस सुख से जब भर जाये तन उन समस्त- प्रदेशस्थ सुखों का परस्पर में गुणा करो | इस प्रकार वह देवसुख अनतगुणित हो जाता है । यह अनतगुणित सुख भी सिद्धों के एक क्षण में होनेवाले सुख की समता नहीं कर सकता । कारण कि उनका सुख अनंतानत है । देवों का सुख अनतवर्गों से वर्गित बतलाया गया है । व 'ज देवाण सोक्स' इत्याहि (जे देवाण मोक्स मव्वद्धापिंडिय अणतगुण) ने सर्व हेवानु न! अजनु सुभ छे तेने शान तगलु उवाभा भावे तो पशु ते, ( ण य पावइ मुत्तिसुह तेहिं वावग्गेहिं ) सिद्ध लगवानना थोड क्षाराथी उत्पन्न थता सुमनी ખરાખરી કરી શકતુ નથી આથી એમ સમજવુ જાઈએ કે સવ દવાનુ ત્રણ કાળનુ સુખ એક એક આકાશના પ્રદેશ ઉપર સ્થાપિત કરી એ રીતે સ્થાપિત કરતા કરતા આકાશના અનત પ્રદેશ તે સુખથી જ્યારે ભરાઇ જાય ત્યારે તે સમસ્ત પ્રદેશમા રહેલા સુખાના પરસ્પરમાં ગુણાકાર કરે એ પ્રકારે તે દેવસુખ અન તગણા થઇ જાય છે સ્મા અન તગણા સુખ પણ સિદ્ધોના એકક્ષણમા થવાવાળા સુખની ખરાખરી કરી શકતા નથી કારણ કે તેમના સુખ અનતાનત છે દેવાના સુખ અનત વર્ગોથી ગિત ખતાવ્યા
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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