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________________ पीयूषवणी टीका, ख १०६ सिस्वरूपवर्णनम् ७१७ अपज्जवसिया अणेगजाइ - जरा - मरण - जोणि-वेयणं संसारकलंकलीभाव - पुणभव-गव्भवास- वसही - पर्वचं सासयमणागयद्धं चिति ॥ सू० १०६ ॥ अइक्कंता मूलम् - कहिं पहिया सिद्धा ?, कहिं सिद्धा पडिट्टिया ? कहिं बोदि इत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ? ॥ सू० १०७ ॥ सादिया अपज्जवसिया' तन सल सिहा भगवन्त सादिका अपर्यवसिता 'अणेग-जाइजरा-मरण - जोणि-वेयणं' अनेक-जाति--जरा-मरण - योनि - वेदनम् - अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा त, 'संसार- कलकली भाव - पुणग्भव- गन्भवासबसही - पवच मसार -- कलहली भाव- पुनर्भव- गर्भवास- वसति-प्रपञ्चं - ससारे कलकलीभावेन ==असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भना = पौन पुन्येन उत्पादा, गर्भवासवसतय गर्भाश्रयनिवासाथ तासा प्रपञ्चोविस्तर स तथा तम् 'अइक्कता' भतिकान्ता निस्तीर्णा, 'सास' mar 'antra' अनागताद्वा भविष्यत्काल 'चिट्ठति' तिष्ठन्ति || सू० १०६ ॥ य 'टीका 'कहिं पहिया' इति । गौतम पृच्छति 'कहिं पडिहया सिद्धा' क्व प्रतिहता सिद्धा = मिद्धा कुत्र प्रतिरद्रा, तथा 'कहिं सिद्धा पडिडिया' क्व सिद्धा प्रति सादि --- अपर्यवसित स्थिति मे विराजमान है। (अणेग-जाइ - जरा - मरण - जोणि- वेयणं ससार- कलकली भाव- पुणग्भव-गग्भवास-बसही पर्वचमकता) ये सिद्ध भगवान् अनेक जाति, जरा एव मरण की वेदना से, तथा असमजसपूर्ण जो बार बार जन्म लेना, गर्भ में वास करना आदि दुस है उनमे युक्त सासारिक प्रपचों से रहित होकर (सासयमणागयद्ध चिट्ठति ) सागाश्वतिकरूप से यहाँ पर विराजने रहते हे || सू० १०६ ॥ તે ચેાજનની ઉપરના કાસના છઠ્ઠા ભાગમાં સિદ્ધ ભગવાન સાદિ-પર્યવસિત स्थितिमा विरानभान छे (अणेग-जाइ-जरा-मरण - जोणि--वेयण ससार- कलक लीभाव - पुणभव-गव्भवाम-मही- पवघमइक्कता) से सिद्ध भगवान भने જન્મ, જરા તેમજ મરણની વેદનાથી તથા અસમજસપૂર્ણ જે વાર વાર જન્મ લેવા, ગર્ભમા વાસ કરવા આદિ દુખ છે તેનાથી યુકત માસારિક પ્રય ચેાથી रहित थने (मासयमणागयद्ध चिट्ठति ) सहा शाश्वतिष्ठ३पथी त्या विश જતા રહે છે (સ્૦ ૧૦૬)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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