SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पोयूपयपिणी-टोका स ५६ भगवतो धर्मदेशना ४५३ वासुदेवा नरगा णेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोया सिद्धी सिद्धा परिणिव्वुया, अनेकविधनरकस्थानानि सन्ति । 'अत्थि णेरइया' सन्ति नैयिका =नरकनिवासिन सन्ति, 'अत्यि तिरिक्खजोणिया' सन्ति तिर्यग्योनिका , 'तिरिक्खजोणिणीओ' सन्ति तिर्यग्योनिजाता स्त्रिय , नरकनैरयिकादीनामह-याना सत्तास्थापनाय कथनम् । 'अस्थि माया अस्थि पिता' अस्ति माता अस्ति पिता, कचिदेव मन्यन्ते-मातापितव्यवहारो न'वास्तनिक, यतो हि-यूकाकृमिगण्टोलकादय स्वजनक विनैनोपद्यन्ते, तन्मत. निराकरणार्थमिद भगरता प्रोक्तमिति भाव । 'अयि रिसओ' सन्ति झपय --रूपय = अतीन्द्रियाऽर्थदृष्टार सन्ति । केचित्वेव वदन्ति--अतीन्द्रियार्थस्य द्रष्टारो न मभवन्ति, नरगा अस्थि गेस्टया अस्थि तिरिक्खनोणिया तिरिक्वजोगिणीओ) अनेक विध नरकस्थान हे और उनम रहने वाले जीव नारकी हे, तिर्यचयोनि के जीव हे. तिर्यच योनि मे उत्पन्न तिर्यञ्च स्त्रिया भी है। नरक एव नारकी आदि अदृश्य जीवों का जो कयन किया है वह उनकी सत्ता प्रदर्शित करने के लिये जानना चाहिये । (अस्थि माया अत्थि पिया) माता है, पिता है । कोई २ ऐसे मानते है कि माता-पिता यह व्यवहार वास्तविक नहीं है, क्यों कि ऐसे भी कई जीव है कि जो माता-पिता के विना भी उत्पन्न होते रहते है। उनकी दम कल्पना को निराकरण करने के लिये भगवान् ने यह कहा है। (अस्थि रिसओ) अतीन्द्रिय अर्थ को देखने वाले कपिजन है । इस कथन का तात्पर्य यह है कि बहुत से वादी ऐसा कहते है कि अतीन्द्रियार्थ द्रष्टा कोई नहा है, कारण कि पुस्प रागादि से कभी निर्मुक्त नहीं हो सकता । अत जैसे हमलोग रागादिम्पन्न होने से अतीन्द्रियार्थ के नए नये (अत्थि नरगा अत्यि णेरइया अस्थि तिरिस्खजोणिया तिरिक्ख जोणिणीओ) गन.विध न२४ थान छ, भने तमा २वावामा १ ना२४ છે તિર્ય ચનિના જીવ છે, તિર્યચનિમા ઉત્પન્ન તિર્થં ચ સ્ત્રીઓ પણ છે નરક તેમજ નારકી આદિ અદશ્ય જીવોનુ જે કથન કર્યું છે તે તેમની સત્તા महर्शित २१। भाटे चु ये (अस्थि माया अस्थि पिया) भात પિતા છે કોઈ કેઇ એમ માને છે કે માતા પિતા એ વ્યવહાર વાસ્તવિક નથી, કેમકે એવા પણ કેટલાય જ છે કે જે માતાપિતા વિના પણ ઉત્પન્ન થતા રહે છે તેમની આ કલ્પનાનું નિરાકરણ કરવા માટે ભગવાને એમ કહ્યું छ तथा (अत्थि रिसओ) मतीद्रिय मथ ने नवापामा नि छ । ४५ નનુ તાત્પર્ય એ છે કે ઘણા વાદિઓ એમ કહે છે કે અતીન્દ્રિય-અર્થ-દ્રષ્ટા કેઈ છે નહિ, કારણ કે પુરુષ રાગાદિથી કદી પણ નિમુક્ત થઈ શકતું નથી,
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy