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________________ - ४५२ . औपातिक पेधार्थम् । 'अयि चेयणा' अस्ति यदा-येना-रटनम-स्वमायादुदीरणा कृत्या वा उदयायलिकामनुप्रविष्टस्य कर्मणो योऽनुभय -कर्मफरगतमुरादु सानुगर , तथापा । 'अत्थि णिजारा' अस्ति निर्जग-निजग देशत कर्गय , अस्थि अरिहता' सत्यन्ति , 'अत्थि चकरही' सति चक्रवनिन', 'अत्यि बलदेवा' मत्ति बल्देवा, 'अत्यि वासुदेवा' सन्ति वासुदेवा --अमातीमा गतुणामभिधान तु तेपा भुवनानि गायित्रप्रतिपादनार्य नेपामतिशय वमप्रधता प्रमाविधानाय च । 'अत्यि नरगा' सन्ति नरसा -- देना इसे भाव-घर के स्थानापन जानना चाहिये । समितिगुमि आदि ये सर भावनगर के ही भेद हे ! इनसे ही आमा में आते हुए कर्म करो '। यहा पर भाव-वर का प्रण हुआ है । भाववर का कथन बध और मोक्ष को जो निष्कारणक मानने वाले है उनकी धारगा का प्रतिषेध करन के निमित्त ममा चाहिये । ( वेयणा) वेदना है। कम की स्वभावत उदीरणा करके अथा उदयालि में उसे लाकर उसके मुसद् ग्यादिक रूप फल का अनुभव करना इसका नाम वेदना हे। (णिज्जा ) निना है । एकदेश से कभी का क्षय होना सो निर्जरा है। (अस्थि अरिहता अत्यि चाही) अहंत है, चक्रवती है । (अस्थि वलदेवा अत्थि पासुदेवा) बलदेव है, वासुदेव है । इन चार अर्हत आठिका प्रतिपादन त्रिभुवन मे इनकी समों कृष्टता जाहिर करने क निमित्त है। अथवा जो इनम अतिशयत्व नहीं मानते हैं, वे इस प्रतिपादन से उनके विषय में अपनी श्रद्धा जाग्रत करें इसके लिये भी यह अहंत आदि चार का प्रतिपादन किया गया जानना चाहिये । (अस्थि ભાવસ વરના ભેદ છે એનાથી જ આત્મામાં આવતા કમ સરકાય છે અહી ભાવસ વરનું ગ્રહણ થયું છે ભાવસ વરનું કથન બ ધ અને મોક્ષને જેઓ નિષ્કારણક માને છે તેમની ધારણાને પ્રતિષેધ કરવા નિમિત્તે સમજવું જોઈએ (वयणा) वना छ उनी सात ही ४शन मथा यापलिमा ते લાવીને તેને સુખ દુ ખ આદિક રૂપ ફલને અનુભવ કરે તેનું નામ વેદના छ (णिजरा) निशछ सशथी भनि। क्षय वो ते नि छ (अस्थि अरिहता त्यि चक्चट्टी) महत छ यस्तो छ (अधि बलदेवा अस्थि वासुदेवा) मखदेव छ, सुहवछ २मा या मत माहिनु प्रतिपाहनत्रिभु વનમા તેમની સર્વોત્કૃષ્ટતા જાહેર કરવાને નિમિત્તે છે અથવા તેઓમાં જે અતિશયત્વ ન માનતા હોય તેઓ આ પ્રતિપાદનથી તેમના વિષયમાં પોતાની શ્રદ્ધા જાગ્રત કરે તે માટે પણ આ અહં ત આદિ ચાનું પ્રતિપાદન કરેલું. (१) चेदगपरिणामो जो कम्मरसायगिरोहणे हेऊ । सो भावमबरो खलु दयामवरोहणे अण्णा ।। वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपिटा परीसहजओ य । चारित्त बहुभेय गायव्या, भावमवरविसेसा ॥ द्रव्याग्रह गाथा ३४-३५ ॥
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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