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________________ पोषण- टीका ५६ भगवतो धर्मदेशना ग्घोस - दंदुभि - स्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइvire अगरलाए अमम्मणाए सव्व - क्खर - सण्णिवाडयाए धोपवत् - कौश्च = पक्षिविशेषस्तस्य मञ्जुलजननत्, दुन्दुभिस्वरवच स्वरो यस्य स तथा-शारदजलधरध्वनिवत् कौशल जनपद् दुन्दुभिस्वरवन्मधुरगम्भीरदूरगामिप्य नियुक्त इत्यर्थ । 'उरे वित्थडाए' उरमि विस्तृतया वक्ष स्थलस्य विस्तीर्णवात् तन विस्तारमुपगतया, ‘कंठे वट्टयाए' कण्ठे वृत्ततया, स्वार्थे तल्, वृत्तया इत्यर्थ, कण्ठस्य वर्त्तुलत्वात् तत्र वृत्तरूपेण स्थितया, 'सिरे समादण्णाए' शिरसि समाकीर्णया - गिरसि= मूर्ध्नि समाफीर्णया=व्यामया, तत 'अगरलाए' अगरल्या = व्यक्तया - मूर्ध्न परावृत्य वक्रमागय तान्यादितत्तत्स्थान प्राप्य वर्णसमुदायस्वरूप प्राप्तया इति भाव, 'अमम्मणाए' अमन्मनया - वर्णपदवै कन्यरहितया, 'सव्वक्खरसन्निनाइयाए' सर्वाक्षरसनिपातिरुया - सर्वे अक्षरसन्निपाता = वर्णयोगा सन्ति यस्या सा तथा सकलवाडमयस्वरूपा तया, भगवत सर्वज्ञतया सर्वार्थनाचकशब्दप्रयोग करणादिति भाव, 'पुण्णरत्ताए' पूर्णरक्तया - पूणा स्वरकलादित्यणिय-महुर - गभीर - कोंच- णिग्योस - दुदुभि-रसरे) भगवान् की ध्वनि शरत्कालीन नवीन मेघ की गर्जना जैसी मधुर एव गंभीर थी। तथा कौचपक्षी के मजुल निर्घोष की तरह मीठी एव दुदुभि के स्वर की तरह बहुत दूर तक जानेवाली थी । (उरे वित्थडाए ) वक्षस्थल के विस्तीर्ण होने से वहाँ पर विस्तार को प्राम हुई ऐसी (कठे वट्टयाए ) कठ के वर्तुल होने के कारण वहाँ पर गोलरूप से स्थित, ( सिरे समादण्णाए ) मस्तक में व्याप्त, ( अगरलाए ) मस्तक से वक्ररूप मे आकर उन २ तान्वादिकस्थानों में प्राप्त होकर वर्णसमुदायस्वरूप को प्राप्त, अत एव स्पष्ट उच्चारणवाली, (अमम्मणाए ) मण मण शन्द से रहित अर्थात् वर्ण एव पढ की विकलता से रहित, ( सव्वक्खरसण्णिवाइयाए ) सकलवाड्मयस्वरूप - समम्त अक्षरों के म्योगवाली-सकल णिग्घोस - दुदुभि-रसरे) लगवाननो ध्वनि, शरह अजना नवीन भेधनी गना જેમ મધુર તેમજ ગ ભીર હાય તેવા હતા તથા કૌચ પક્ષીના મજીલ નિર્ધાષના જેમ મીઠા તેમજ દુદુભિના સ્વરના જેમ બહુ દૂર સુધી જાય તેવા तो (उरे नित्यडाए) पक्षभ्यस विस्तीर्थ (थहोणु) होवाथी त्या विस्तारने प्राप्त थयेसी, (कठे वट्टयाए) 38 गोण होवाना जरो त्या गोज ३५थी स्थित, (सिरे समाइण्णा) भन्त भी व्याप्त, (अगरलाए) भन्थी १४३भा भावी तेले તાલુ આદિક સ્થાન પ્રાપ્ત કરી વર્ણસમુદાયસ્વરૂપને પ્રાપ્ત હાવાથી સ્પષ્ટ ઉચ્ચાरसु पाणी, (अमम्मणाए) भधु-भधु शब्द रहित अर्थात् पशु तेभन पहनी विश्वतायी रहित (सव्व-क्सर-सण्णिनाइयाए) सस वाङ्मयस्व३य सभस्त अक्ष ४४५
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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