SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ औपपातिकमरे परित्तविणए। से किं तं मणविणए? मणविणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पसस्थमणविणए १, अप्पसत्थमणविणए २। से कि तं अप्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए-जे य मणे सावजे १, तीर्थकरै कथितमकपाय चारितमिति तत् यथारख्यातचारित्र, तम्य कपायरहितचारित्रस्य विनय १५ । से त चरितविणए' स एप चाग्निविनय । 'से कि त मणविणए' अथ कोऽसौ मनोविनय ? उत्तरमाह-'मणरिणए'--मनोविनय मन्यते चिन्यतेऽनेनेति मन , तत्सम्बन्धी विनय , 'दुविहे पणत्ने द्विविध प्रजम , 'त जहा' तयथा-पसत्यमणविणए' प्रशस्तमनोविनय --प्रशस्तम्-अभयरहित मनोऽन्त करणं, तस्य विनय ११ 'अप्पसत्यमणविणए' अप्रशस्तमनोविनय -अप्रगस्तमनसो विनय ।२। 'से कि त अप्प सत्यमणविणए' अथ कोऽसौ अप्रगस्तमनोविनय ? उत्तरमाह-'अप्पसत्यमणविणए-जे है, इस रूप के चारित्र का नाम यथाख्यातचारित है । इस चारित्र का विनय करना सो यथाख्यातचारित्रविनय है ५। (से त चरित्तविणए) यह सब चारित्रविनय है । प्रश्न( से र्फि त मणविणए) मन का विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर-(मणविणए दुविहे पण्णते) मनोविनय दो प्रकार का कहा गया है, (त जहा) जैसे-(पसत्थमणविणए) प्रशस्त मन का विनय-पापरहित मन को अपनाना प्रशस्तमनोविनय है। (अप्पसत्यमणविणए) अप्रशस्त मन का विनय करना सो अप्रशस्तमनोविनय है । प्रश्न-(से किं त अप्पसत्थमणविणए) अप्रशस्तमनोविनय क्या है? उत्तर-(अप्पसत्यमणविणए जे य मणे सावजे १, सकिरिए २, सककसे ३, कडुए ४, गिट्ठरे ५, फरसे ६, છે તીર્થંકર પ્રભુએ જે યથાર્થતા તેમજ અભિવિધિના અનુસાર ચારિત્રનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તે રૂપના ચારિત્રનું નામ યથાખ્યાતચારિત્ર છે આ ચારિત્રનો विनय ४२व। ते याभ्यातयास्त्रिविनय छ (से त चरित्तविणए ) मा सया ચારિત્રવિનય છે प्रश्न-(से कि त मणविणए) मनन। विनय शु छ १४ ४१२ना छ ? उत्तर-(मणविणए दुविहे पण्णत्ते) भनाविनय प्रकार छ (त जहाभ-(पसत्यमणविणए) प्रशस्त मनना विनय-पापरहित भनने सपना प्रशस्त मनाविनय छ (अप्पसत्थमगविण) सप्रशस्त मनना विनय ४२ ते पशमनाविनय छ प्रश्न-(से कि त अप्पसस्थमणविणए) प्रशस्त मनाविनय उत्तर-(अप्पसत्यमणविणए-जे य मणे सारज्जे, सकिरिण, सक कसे, कडुए, विदरे, फरसे, अण्हयकरे, छेयकरे, भेयकरे परितावणकरे, उद्दवणकरे, भूऔषधाइए)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy