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________________ २५७ ___पवर्षिणी-टीका सू० ३० विनयभेदपर्णनम् २५७ से किं तं विणए ? विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहागच्छानि सारितोऽम्मीत्यशुभो भार स्वपतरोऽपि न विद्यते स एवविधगुणसम्पन्न पाराविक प्रायश्चित्त कर्तुमर्हति । यस्त्वेतद्गुणरहितन्तस्य पाराश्चिकापत्ति प्रामस्य मूलमेन यश्चित्त भवति । आशातनापाराधिको जघन्येन पण्मासान् , उन्कर्पतश्च द्वादश मामान् भवति, एतावन्त लि गच्छानिएँढ (निफाशित ) स्तिष्ठति । प्रतिसेवनापागञ्चिको जघन्येन मरसरमुकर्पतो दिश वर्षाणि नियूढ आस्ते । विस्तरन्तु-अन्यत्र द्रष्टव्य । 'से त पायच्छित्ते' तदेतआयश्चित्तम् । से कि त विणए ' अथ कोऽसौ विनय ? विनय फिस्वरूप इति प्रश्न । उत्तरमाह-'विणए' विनय -चिनयति-अपनयति अष्टविधर्माणीति विनय =अभ्युथानपन्दनगया हूँ' यह अशुभ भाव अणुमात्र भी न हो, इस प्रकार के गुणों से युक्त ही साधु पाराचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी है । जो साधु इन गुणों से रहित है, उससे पाराञ्चिकाई प्रायश्चित्त योग्य अपराध हो गया है, उसको मूलाई प्रायश्चित्त ही दिया जाता है। आगातनापाराश्चिक साधु जघन्य से छ मास तक और उकर्ष से बारह मासतक गच्छ से वहिष्कृत रहता है। प्रतिसेननापाराञ्चिक साधु जघन्य से एक वर्ष और उत्कर्ष से बारह वर्ष गच्छ से बहिष्कृत रहता है । इसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र देसना चाहिये । (से त पायच्छित्ते) ये दम प्रकार के प्रायश्चित्त हे ॥ सू० ३०॥ (से कि त विणए ) विनय का क्या स्वरूप है (विणए सत्तविहे पण्णत्ते) विनय सात प्रकार का है। जो अष्टविध कर्मी को दूर करता है, वह विनय है। માથી કાઢેલા છતા પણ જેના મનમાં “હું ગચ્છથી બહિષ્કાર પામેલે શુ એ અશુભ ભાવ અણુમાત્ર પણ ન હય, એ પ્રકારના ગુણોવાળે જ સાધુ પારાચિક પ્રાયશ્ચિત્તને અધિકારી છે જે સાવું એ ગુણોથી રહિત છે તેનાથી પારાચિકાણું પ્રાયશ્ચિત્ત યોગ્ય અપરાધ થઈ ગયું હોય તો તેને મૂલાઈ પ્રાયશ્ચિત્ત જ અપાય છે આશાતનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી છ માસ સુધી અને ઉત્કર્ષથી બાર માસ સુધી ગચ્છથી બહિષ્કૃત રહે છે પ્રતિસેવનાપારાચિક સાધુ જઘન્યથી એક વર્ષ અને ઉત્કર્ષથી બાર વર્ષ સુધી ગ૭થી मडित २ छ तेनु विस्तृत पनि मीरथी नदेनमे (से तंपायच्छित्ते) मा ४२ प्रा२ना प्रायश्चित्त (सू० ३०) (से कि त विणए) विनय तपनु स्व३५ शुछ? उत्तर-(विणए सत्तरिहे पण्णत्ते) ते सात
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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