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________________ २३६ . औषपातिकने यगिहेसुपणियसालासुइत्थी-पसु-पंडग-संसत्त-विरहियांसु वसहीसु फासुएसणिज पीढ-फलग-सेजा-संथारंग उवसंपजित्ताणं विहरड, से तं विवित्तसयणासणसेवणया: 1 से त पडिसलीगया। से तं वाहिरए तवे ॥ सू०३०॥ विहरइ ' विविक्तगयनासनसेवनता-यत बचागमेषु उद्यानेषु देवकुलेषु प्रपामु पणितगृहेषु पगितगालासु स्त्री-पशु-पण्डक-ससक्त-विरहितामु रसनिषु प्रामुपगीय पीठफलक-शय्या-सस्तारकम् उपसम्पद्य विहरति, 'स्त्री-पशु-पण्डक ससक्त-विरहितासु' इत्यस्य लिगविपरिणामेन आरामादिपदेष्वप्यन्वय' कार्य , ततश्च यत् मल=निश्चयेन अनगार , स्त्री-पशु-पण्डक-ससक्त-विरहितेषु स्त्रिय , पशव , पण्डका =नपुसका , एतै सर्वे ससक्त= सयोग , तेन विरहितेषु आरामेपु=कृतिमवनेपु, उद्यानेपु-कुसुमकाननेपु, देवकुलेपु=यक्षकुलेषु, तथा स्यादिससक्तनर्जितासु सभासु, प्रपासु-पानीयगालासु, पणितगृहेपु-व्यावहारिकजनोचितेषु पण्यगृहेषु, पणितशालामु = बहुप्राहकदायकजनयोग्यासु, ज्यादिससर्गरहितासु वसतिपु सामान्यगृहिगृहेषु, एवविधानेकस्थानेषु 'फासुएसणिज' प्रासुकैपणीय-प्रगता असव असुमन्त प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकम् अचित्तम्, अत एव एषवसहीसु फासुएसणिज्ज पीढफलगसेज्जासथारग उवसपज्जित्ताण विहरइ ) दोपरहित शयन एव आसन की सेवनता यह इस प्रकार से होती है जो अनगार स्त्रियों, पशुओं, एव नपुसकों से रहित आरामों में-कृत्रिमवनों में, उद्यानों में कुसुमित काननों में, देवकुला, में यक्षायतनों में, सभाओं में, प्रपाओं में-पानीयशालाओं में, पणितगृहों मे-व्यावहारिकजनोचित पण्यगृहों में, पणितशालाओं में अनेक ग्राहक एव दायक जनों के योग्य ऐसे स्थानों में, वसतियों में सामान्य गृहस्थजनों के घरों में, अचित्त एव निरवद्य पीठ, फलक, इत्थीपसुपडगससत्तविरहियासु पसहीसु फासुएसणिज्ज पीढफलगसेज्जासथारग उपसपज्जित्ताण विहरइ, से त पडिसलीणया) होपडित मासन तम शयननु सेवन કરવું તે આ પ્રકારે થાય છે કે જે અનગાર સ્ત્રીઓ, પશુઓ, તેમજ ૫ડકેન, સકથી રહિત આરામમા-એટલે કૃત્રિમવામાં, ઉદ્યાનેમા-કુલવાડીઓમા, દેવમાચક્ષાયતનેમા, સભાઓમા પ્રપાઓમ-પાનીયશાલાઓમાં (પરબના સ્થાનમાં) પતિગૃહેમા-વ્યવહારિક-કેચિત દુકાનેમા, પણિતશાલાઓમાં -અનેક ગ્રાહકે તેમજ દાયક (દેનારાઓ લેકેને ચગ્ય એવા સ્થાનોમાં એટલે ગોદામા,વસતિઓમા સામાન્ય ગૃહસ્થ લોકોના ઘરમા, અચિત્ત તેમજ નિરવધ
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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