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________________ १९६ औपपातिकमुत्रे त्थामा, सीहा इव दुछरिसा, वसुंधरा इव मव्यफासविमहा, सुहुहुयासणा इव तेयसा जलंता ॥ सू० २७ ॥ प se' | 'सीst statसा ' सिंह दुई , 4 } वसुधरा व सासरसहा वसुधा सर्वस्वनि - पृथ्वी यथास मसह्य वा स्पर्श सहते सर्वमहनि चोच्यते तथैवेत सोऽनुपसर्ग सुसहा भवति । 'मुहुहुयासणी इत्र तेयसा जस्ता ' गुना तेजमा ज्वलन्त -सुहुत = मुटु हुत-- घृताद्याहुतिभिस्तर्षितो यो हुताशनो चाहि ततेजसा-तपसयमतेजसा ज्वलन्तो दीप्यमाना इति भान ॥ अत्र उपमानसग्राहकम् इद गायादयम् ' कसे १ से २ जीवे ३, जच्चे कणगे य ४ आहरिसे ५। कुम्मे ६ पुखरपत्ते ७, गयणे ८ अगिले ९ य च १० सुरे य ११ ॥ सागर १२ विहगे १३ मटर १४, सारयसलिल च १५ सग्गी य १६ । भारडे १७ गय १८ वसहे १९, सीह २० वसुधरा २१ मुहुयहुए २२|| २ || इति ॥ सू० २७ ॥ समान ये लिए थे । (सीहो इव दुद्धरिसा ) सिंह के समान ये दुर्धर्ष थे। सिंह जैसे मृगादिकों से अप्रभृष्य होता है, उसी प्रकार मृग जैसे परीपहादियों से ये भी चलितचित्त नहीं होते थे । ( वसुधरा इव सव्वफासविसहा ) पृथिनी के समान सर्वस्पर्शसह थे । पृथिवी जिस तरह सहने योग्य अथवा नहीं सहन करने योग्य ऐसे भी स्पर्श को सहती है उसी प्रकार ये मुनिजन भी अनुकृन एव प्रतिकृत्र परीपहों के उपनिपात को अच्छी तरह सहन करते थे ( सुहुयहुयासणी इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्नि की तरह ये तप और सयम के तेज से देदीप्यमान थे ॥ २७ ॥ रिसा) सिद्धना वा तेसो हुर्धर्ष हता सिद्ध प्रेम भृग आाहिजेयी' य ધુષ્ય હાય છે તેવી જ રીતે મૃગસમાન પરીષહ આદિકેશથી તે પશુ ચલિત चित्त थता नहोता ( वसुधरा इन सव्यास विसहा ) पृथिवीनी येहे सर्व स्पर्श સહન કરતા હના પૃથિવી જેમ મહેવા યાગ્ય અથવા ન સહન કરવા યાર એવા પણ સ્પર્ધાને સહન કરે છે તેવી જ રીતે એ મુનિજને પણ અનુકૂળ તેમ જ પ્રતિકૂળ પરીષહોના ઉપનિપાત ને સારી રીતે સહન કરતા હતા ( सुहुहुयासणो इव तेयसा जलता ) सुहुत अग्निनी पेठे तेथे तप भने सयभना તેજથી દૈદીપ્યમાન હતા (સ્૦ ૨૭)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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